Saturday, December 31, 2016
Thursday, December 29, 2016
Monday, December 26, 2016
Monday, December 19, 2016
Wednesday, December 14, 2016
बड़े सा’ब हैं आप तो
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
बड़े सा’ब हैं आप तो
दिल्ली में रहकर
दिल्ली से
अनजान हैं आप तो।
वातानुकूलित
सड़कें आपकी
सर्दी-गर्मी से
अनजान हैं आप तो।
लाल बत्ती में सफर
‘ट्रैफिक’ में रहकर
‘ट्रैफिक जाम’ से
अनजान हैं आप तो।
चौबीस घंटे बिजली
‘पावर’ में रहकर
‘पावर कट’ से
अनजान हैं आप तो।
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Friday, December 9, 2016
देवदार
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
देवदार पर्वतीय श्रृंखलाओं
में पाया जाने वाला कॉनिफर(शंकु) जाति का बहुत ही सुंदर व मजबूत वृक्ष है. देवदार
शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है देव(देवता) और दारू(लकड़ी). देवदार का स्थानीय नाम
सीडरस दियोदारा है. स्थानीय भाषा में इसे
दियार, केलो भी कहा जाता है. भारत में गढ़वाल, कुमाऊं, असम, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश
में देवदार के घने जंगल हैं.
देवदार की पत्तियाँ पतली,
नुकीली व चमकदार होती हैं, वो सदा हरी रहती हैं. इनकी आयु दो-तीन साल होती है.
शंकु जाति का होने के कारण शीर्ष पर शंकु के आकार का ही होता है किंतु कभी-कभी
बर्फ गिरने से या तेज हवा के चलने से चपटा हो जाता है. पूर्ण वृक्ष की लम्बाई
प्रायः 40(चालीस)मी0 से 60(साठ)मी0 तक होती है और वृक्ष की मोटाई 4मी0 से 6मी0 तक
होती है. वृक्ष की छाल पतली हरी होती है जो धीरे-धीरे गहरी भूरी हो जाती है. वृक्ष
के तने की (Horizontal) काट देखने पर बहुत ही सुंदर लगती है, इस पर पेंटिंग्स भी बनाई जाती हैं.
वातावरण अनुकूल होने पर बड़े वृक्षों के नीचे नये पौधे निकल आते हैं.
मान्यता है कि जब प्रलय के
समय सारी सृष्टि जलमग्न हो गयी थी तब भी दो-चार देवदार के वृक्ष बचे हुये थे. जैसा
कि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में भी लिखा है-
उसी तपस्वी से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े।
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
Thursday, December 1, 2016
सुपर मून
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
सुपर मून
आया पृथ्वी पास
मुस्काई धरा ।
चन्द्रमा अपनी धुरी पर
घूमता हुआ पृथ्वी के चारों ओर अण्डाकार कक्षा में चक्कर लगाता है. कभी पृथ्वी के
बहुत पास होता है और कभी पृथ्वी से बहुत दूर दिखाई देता है. जब चन्द्रमा पृथ्वी के
बहुत पास होता है अर्थात् चन्द्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी बहुत कम होती है तो
चन्द्रमा बहुत बड़ा दिखाई देता है और चाँदनी भी बहुत अधिक होती है. ऐसा ही 14
नवंबर, 2016 को कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ, जब पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की
दूरी बहुत कम होने के कारण चन्द्रमा लगभग 14% बड़ा दिखाई दिया और इसकी रोशनी 30% अधिक थी. इसे सुपर मून का
नाम दिया गया. इससे पहले लगभग 68 वर्ष पहले सन् 1948 में सुपर मून दिखाई दिया था.
कहते हैं सालभर में शरद
पूर्णिमा की चाँदनी सबसे अधिक होती है, इसी दिन श्रीकृष्ण भगवान ने वृन्दावन में राधाजी और अन्य
गोपियों के साथ मिलकर चाँदनी रात में रास रचाया था. किंतु इस साल 2016 में कार्तिक
पूर्णिमा की चाँदनी शरद पूर्णिमा की चाँदनी से भी अधिक थी. शायद इसीलिये इसे सुपर
मून का नाम दिया गया.
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Saturday, November 5, 2016
Sunday, October 30, 2016
दीपावली-सामाजिक पर्व
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
दीपावली
पर्व है स्वच्छता, सुन्दरता
और उज्जवलता का
स्वच्छ आँगन सजे रंगोली से।
महल और झोंपड़ी
रोशन दिये की लौ से
बच्चे-बूढ़े सभी के मन
मिठास बसी बतासे सी
सभी के मन छूट रहीं
फुलझड़ियाँ खुशियों की
खील सी खिलखिलाती रहे
जिंदगानी सभी की
कामना यही माँ लक्ष्मी की।
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Thursday, October 27, 2016
Thursday, October 20, 2016
Saturday, October 8, 2016
Friday, October 7, 2016

स्वस्तिक
स्वस्तिक = सु + अस + क
सु = अच्छा
अस = सत्ता या अस्तित्व
क = करने वाला
अर्थात् स्वस्तिक का अर्थ है अच्छा या मंगल करने वाला. इसीलिये सभी मांगलिक
अवसरों पर स्वस्तिक बनाया जाता है और उसकी पूजा की जाती है. स्वस्तिक की चार
भुजायें चार दिशाओं की प्रतीक हैं, जो चारों दिशाओं में मंगल और कल्याण करने की
भावना को प्रदर्शित करती हैं. इस प्रकार स्वस्तिक में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना भी निहित है.
Thursday, September 29, 2016
Monday, September 26, 2016
Saturday, September 24, 2016
लिपि का विकास
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
“लिपि से अभिप्राय
ऐसे प्रतीक और चिह्नों से है जिनके माध्यम से किसी भाषा में भाव और विचार लिखित
रूप में अभिव्यक्त होते हैं.”
डॉ0
मंजूश्री गर्ग
प्राचीन लिपि
सूत्र लिपि चित्रलिपि
(रस्सी में गाँठे लगाना) (चित्र
द्वारा भाव प्रकट करना)
लिपि का वास्तविक विकास चित्रलिपि से हुआ है. पहले स्थूल चित्र बनाये जाते थे,
बाद में सूक्ष्म भावों को प्रकट करने वाले चित्र बनाये जाने लगे-जैसे-पहाड़ का
चित्र पहाड़ का ही बोध न कराकर उच्चता, महत्ता का भी बोध कराता है. इस प्रकार
चित्र लिपि ने भाव लिपि का रूप धारण किया. आज भी चीन, जापान और कोरिया की भाषायें
चित्र लिपि पर ही आधारित हैं. इसी प्रकार की एक फोनीशियाई लिपि है. तिकोनी होने के
कारण इसे तिकोनी लिपि भी कहते हैं. यही लिपि अर्द्ध अक्षरात्मक और अक्षरात्मक
स्थिति से गुजरते हुये ध्वन्यात्मक या वर्णात्मक हो गयी.
अक्षरात्मक लिपि में प्रत्येक इकाई में एक से अधिक वर्ण जुड़े होते हैं, जबकि
वर्णात्मक लिपि में प्रत्येक इकाई स्वतन्त्र वर्ण होती है.
विश्व की प्राचीन ब्राह्मी
लिपि अक्षरात्मक है. यह बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है. ब्राह्मी लिपि से ही
देवनागरी लिपि का विकास हुआ है. हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है.
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी की रोमन लिपि है. यह वर्णात्मक है-इसमें हर वर्ण
अलग लिखा जाता है. देवनागरी लिपि में मात्राओं के अलग से चिह्न होते हैं जबकि रोमन
लिपि में मात्रायें वर्णों द्वारा ही लिखी जाती हैं, जैसे- राम, केशव (देवनागरी लिपि)
Ram, Keshav(रोमन लिपि)
इस प्रकार विश्व की सभी भाषाओं की
लिपि चित्र लिपि, ब्राह्मी लिपि या फोनीशियाई लिपि से ही विकसित हुई हैं.
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Sunday, September 18, 2016
श्री कृष्ण और रूक्मणी-विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
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डॉ0 मंजूश्री गर्ग
रूक्मिणी कुण्डिनपुर के
राजा भीष्मक की पुत्री थीं, उसके पाँच भाई थे. एक दिन नारद जी कुण्डिनपुर गये तो
राजा के कहने पर रूक्मिणी का हाथ देखकर कहा कि, “यह कन्या अत्यन्त भाग्यशाली, सर्वगुण सम्पन्न
है, इसका विवाह परमब्रह्म परमेश्वर से होगा”. यह जानकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई. एक बार कुछ याचक
गण कुण्डिनपुर में जाकर श्री कृष्ण चरित्र का गान करने लगे. राजा भीष्मक ने उन्हें
महल में बुला लिया, वहाँ रूक्मिणी ने भी वह सुना, उनके मन में श्री कृष्ण के प्रति
प्रेम उत्पन्न हो गया. इसी प्रकार एक बार नारद जी ने द्वारिका में जाकर श्री कृष्ण
से रूक्मिणी के गुणों का वर्णन किया, तो श्री कृष्ण के मन में भी रूक्मिणी के
प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया. रूक्मिणी तो दिन-रात श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न
रहने लगीं और पार्वती जी का पूजन कर श्री श्याम सुन्दर को पति रूप में प्राप्त
करने का वर माँगने लगीं. रूक्मिणी ने यह प्रण लिया कि मैं मनमोहन के अतिरिक्त किसी
अन्य से विवाह नहीं करूँगी. रूक्मिणी के इस निर्णय से उनके माता-पिता भी सन्तुष्ट
थे.
एक बार राजा भीष्मक ने राज सभा में रूक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण
के साथ होने का प्रस्ताव रखा, किन्तु उनके बड़े पुत्र रूक्माग्रज ने इस पर बड़ा
विरोध प्रकट करते हुये कहा, “उस गँवार ग्वाले(श्री कृष्ण) की जाति-पाँति का कुछ पता
नहीं, अभी कुछ दिनों से बढ़ गये हैं तो भी उनकी गणना श्रेष्ठ कुल में नहीं होती.
राजन् आप रूक्मिणी का विवाह चँदेरी के राजा शिशुपाल के साथ करिये”. यद्यपि रूक्मेश, आदि अन्य भाई, सभासद राजा के मत से ही सहमत
थे, लेकिन रूक्माग्रज के आगे एक न चली और उसने ज्योतिषियों से शुभलग्न पूछकर एक
ब्राह्मण के हाथ टीका शिशुपाल को भेज दिया.
जब रूक्मिणी को ज्ञात हुआ कि रूक्माग्रज ने राजा का विरोध कर उसकी
लगन शिशुपाल के यहाँ भेज दी है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. वह मन में विचार करने
लगीं कि मैं तो अन्तःकरण से श्री कृष्ण को अपना पति मान चुकी हुँ अब किसी ओर को
अपना पति कैसे मानूँगी. बहुत सोच विचार कर रूक्मिणी ने एक पत्र श्रीकृष्ण ने नाम
लिखा, “हे देव! मैं मन, वचन और कर्म से आपको अपना पति मान चुकी हुँ. किसी
अन्य के लिये मेरे ह्रदय में स्थान नहीं है. मेरा बड़ा भाई रूक्माग्रज मेरा विवाह
शिशुपाल से करवाने जा रहा है, उसका विरोध करने में मेरे पिता व अन्य सभासद असमर्थ
हैं. अतः आपसे निवेदन है कि आप विवाह से एक दिन पूर्व आकर मेरी लाज रख लें. जब मैं
देवी जी की पूजा करने नगर से बाहर जाऊँगी , तब वहाँ से आप मुझे अपने साथ ले
जाइयेगा. आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे. आपके चरणों की दासी- रूक्मिणी” और एक बुद्धिमान ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण के
पास द्वारिका भेज दिया.
श्री कृष्ण को पत्र देते
हुये ब्राह्मण ने भी श्री कृष्ण से कहा कि “हे दया सिन्धु! कुण्डिनपुर की
राजकुमारी दिन-रात तुम्हारा ध्यान रखती हैं, उसके भाई रूकमाग्रज ने सबका विरोध कर
उसकी सगाई शिशुपाल से कर दी है किन्तु रूक्मिणी मन, वचन, कर्म से आपके साथ ही
विवाह करने का संकल्प कर चुकी हैं. अतः आप शीघ्र से शीघ्र कुण्डिनपुर चलने की कृपा
कीजिये”. श्री कृष्ण ने ध्यान से
ब्राह्मण के वचन सुने और रूक्मिणी द्वारा भेजा पत्र भी पढ़ा. पत्र पढ़कर श्री
कृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुये और एकान्त में ले जाकर ब्राह्मण से कहा कि- “हे ब्राह्मण देवता! जब से नारद जी से
रूक्मिणी के रूप, गुणों को सुना है, तब से मैं भी उससे प्रेम करने लगा हूँ. अभी आप
विश्राम करिये, सुबह हम दोनों कुण्डिनपुर चलेंगे.”
प्रातः काल होने पर श्री
कृष्ण ने दारूक सारथि से रथ मँगवाया और ब्राह्मण के साथ कुण्डिनपुर को चल दिये.
पीछे बलराम जी सेना सहित श्री कृष्ण की सहायता के लिये आ गये. कुण्डिनपुर पहुँच कर
श्री कृष्ण राजा भीष्मक के बाग में ठहर गये. ब्राह्मण के मुख से श्री कृष्ण के आने
का समाचार सुनकर रूक्मिणी अत्यन्त प्रसन्न हुईं. राजा भीष्मक को भी जब श्री कृष्ण
के आने का समाचार मिला तो वह भी अत्यन्त प्रसन्न हुये और अपने चारों छोटे पुत्रों
के साथ रत्नाभूषणादि लेकर श्री कृष्ण से मिलने बाग में पहुँचे. राजा भीष्मक ने मन
का सब हाल श्री कृष्ण से कह दिया कि किस तरह रूक्माग्रज के सामने वह विवश हैं.
शिशुपाल भी बारात लेकर कुण्डिनपुर पहुँच गया, उसको जनवासे में ठहराया गया और राजा
ने उत्तमोत्तम पदार्थों के साथ बारात का स्वागत किया.
रुक्माग्रज को जब श्री कृष्ण और बलराम के आने का समाचार मिला तो
वह अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसे लगा कि पिता ने उन्हें बुलाया है, लेकिन राजा ने
मना कर दिया कि मैंने कृष्ण, बलराम को नहीं बुलाया. तब रूक्माग्रज ने शिशुपाल और
जरासन्ध के पास जाकर कहा कि यहाँ कृष्ण और बलराम भी आये हुये हैं, अतः अपने
सेनापतियों को सावधान कर दो.
विवाह के दिन रूक्मिणी अपनी सखियों के साथ गौरी पूजन के लिये नगर
के बाहर देवी मन्दिर के लिये चलीं. उस समय शिशुपाल ने अपने पचास हजार सैनिक भी
रूक्मिणी की रक्षा के लिये साथ भेज दिये. मन्दिर में पहुँचकर रूक्मिणी ने गौरी का
विधिपूर्वक पूजन किया और प्रार्थना की कि “हे गौरी माता! मैंने बचपन से ही
आपकी सेवा की है. आप मेरे मन की दशा जानती हैं. अतः आप ऐसा वरदान दें कि मुझे
मनवांछित वर प्राप्त हो.” पूजा, अर्चना कर रूक्मिणी मन में श्याम सुन्दर से मिलने की
आशा लिये मन्दिर से निकलीं. तभी
आनंदकंद श्री कृष्ण का रथ वहाँ आ गया. श्याम सुन्दर को देखकर रूक्मिणी व सखियाँ
अत्यन्त प्रसन्न हुईं. श्री कृष्ण ने रथ रूक्मिणी के बिल्कुल समीप ही खड़ा कर
दिया. जैसे ही रूक्मिणी ने लजाते हुये अपना हाथ बढ़ाया वैसे ही श्री कृष्ण ने रूक्मिणी
को अपने बायें हाथ से पकड़कर रथ में बैठा लिया और शंख बजाते हुये आगे बढ़ गये.
शिशुपाल के सैनिक उन्हें देखते ही रह गये. श्री कृष्ण अपना रथ तीव्र गति से
द्वारिका की ओर ले जाने लगे. उन्होंने देखा कि रूक्मिणी कुछ घबरायी हुई हैं तब
उन्होंने रूक्मिणी से कहा, “हे रूक्मिणी! तुम चिंता न करो, मैं
द्वारिका पहुँचकर तुमसे विधिवत विवाह करूँगा”. यह कहकर अपने गले की माला रूक्मिणी को पहना दी.
जब रूक्माग्रज और शिशुपाल
को ज्ञात हुआ कि श्री कृष्ण रूक्मिणी का हरण करके ले गये हैं तो वे अपनी-अपनी
सेनाओं के साथ व जरासन्ध, दन्तवक्र, आदि राजा जो शिशुपाल की बारात में आये हुये
थे, श्री कृष्ण से युद्ध करने चल दिये. श्री कृष्ण-बलराम की सेना व रूक्माग्रज,
आदि की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ. श्री कृष्ण रूक्माग्रज को मारने ही वाले थे
कि रूक्मिणी के कहने पर उसे जीवन दान दे दिया. अन्य सेना को भी तहस-नहस कर श्री
कृष्ण और बलराम रूक्मिणी के साथ द्वारिका पहुँचे. वहाँ राजा उग्रसेन और वसुदेव ने
सब परिवार जनों के साथ उनकी अगवानी की और प्रसन्नतापूर्वक राजमन्दिर में ले गये.
वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्ग मुनि को बुलाकर शुभ लग्न में श्री कृष्ण जी के साथ
रूक्मिणी जी का विवाह करा दिया.
श्री कृष्ण-कालिन्दी विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
कालिन्दी सूर्य की
पुत्री थीं. पिता की आज्ञा से श्री कृष्ण को परमब्रह्म परमेश्वर का अवतार मानकर,
उन्हें पतिरूप में प्राप्त करने के लिये यमुना-जल में रत्न जड़ित स्वर्ण मंदिर में
बैठकर तपस्या करने लगीं. एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन शिकार खेलकर वन में विश्राम
करने लगे. अर्जुन यमुना तट पर जल लेने के लिये गये तो उन्होंने अद्भुत दृश्य देखा
कि जल के बीच में एक परम सुन्दरी तपस्या कर रही है. अर्जुन ने उस कन्या के पास
जाकर पूछा- “हे सुन्दरी! तुम्हारा नाम क्या है? और क्यों तपस्या कर
रही हो”? तब कालिन्दी ने अपना परिचय
दिया और श्री कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने की अभिलाषा अभिव्यक्त की. अर्जुन
ने कालिन्दी के मन का सब हाल श्री कृष्ण से कहा. श्री कृष्ण शीघ्र ही कालिन्दी के
पास पहुँचे. कालिन्दी श्री कृष्ण को देखकर उनके चरणों में गिर गयीं, श्री कृष्ण ने
भी प्रसन्न होकर कालिन्दी का हाथ पकड़ लिया. तब श्री कृष्ण और कालिन्दी सूर्य
देवता के पास गये, वहाँ सूर्यदेव ने श्री कृष्ण और कालिन्दी का विवाह विधिवत करा
दिया.
श्री कृष्ण-मित्रविन्दा का
विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
श्री कृष्ण की
राजदेवी नाम की एक बुआ का विवाह उज्जैन के राजा से हुआ था. उसकी एक परम सुन्दरी
कन्या थी, जिसका नाम मित्रविन्दा था. जब मित्रविन्दा विवाह के योग्य हुईं तो उनके
लिये स्वयंवर रचा गया. श्री कृष्ण भी स्वयंवर में गये. मित्रविन्दा ने श्री कृष्ण
को देखकर अन्य राजाओं को छोड़कर श्री कृष्ण के गले में माला डाल दी. दुर्योधन, आदि
के विरोध करने पर श्री कृष्ण मित्रविन्दा को रथ में बैठाकर द्वारिका ले आये और
वहाँ श्री कृष्ण-मित्रविन्दा का विधिवत विवाह हुआ.
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श्री कृष्ण-सत्या का विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
सत्या अयोध्या के
राजा नग्नजित् की पुत्री थीं. जब सत्या विवाह के योग्य हुईं तो नग्नजित् ने यह
प्रण किया कि जो कोई मेरे सात बैलों को एक साथ नाथ देगा, उसी के साथ मैं अपनी पुत्री
का विवाह करूँगा. अनेक राजाओं ने अयोध्या आकर सात बैलों को एक साथ नाथने का
प्रयत्न किया, लेकिन असमर्थ रहे. एक बार श्री कृष्ण अर्जुन के साथ अयोध्या गये,
वहाँ राजा नग्नजित् ने उनका बहुत आदर सत्कार किया. जब राजकुमारी सत्या ने श्री
कृष्ण को देखा तो वह उन पर मुग्ध हो गयीं और मन ही मन श्री कृष्ण को पतिरूप में
प्राप्त करने की कामना करने लगीं. श्री कृष्ण ने राजा नग्नजित् के कहने पर उनकी
प्रतिज्ञा के अनुसार राजा के सात बैलों को एक साथ नाथ दिया. राजा नग्नजित् बहुत
प्रसन्न हुये और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सत्या का विवाह शास्त्र-विधि के अनुसार
श्री कृष्ण से कर दिया. श्री कृष्ण जब सत्या के साथ द्वारिका आये तो सभी बहुत
आनन्दित हुये.
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श्री कृष्ण-भद्रा का विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
भद्रा भदावर देश के
राजा की पुत्री थीं. जब भद्रा विवाह के योग्य हुईं तो राजा ने भद्रा के विवाह के
लिये स्वयंवर रचा. स्वयंवर में भाग लेने अनेक राजा आये, श्री कृष्ण भी अर्जुन के
साथ वहाँ गये. जब राजकुमारी वरमाला लिये हुये आयीं तो श्री कृष्ण की मेहिनी मूरत
पर रीझ कर माला श्री कृष्ण के गले में डाल दी. तब राजा ने भद्रा का विवाह श्री कृष्ण
के साथ कर दिया.
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श्री कृष्ण- लक्ष्मणा विवाह
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
लक्ष्मणा
मद्रास(द्रविड़) के राजा की पुत्री थीं. जब लक्ष्मणा विवाह के योग्य हुईं तो राजा
ने पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवर रचा. अनेक देशों के राजाओं के साथ श्री कृष्ण
भी अर्जुन के साथ वहाँ पहुँचे. जब लक्ष्मणा स्वयंवर-स्थल में आईं तो श्री कृष्ण की
मधुर मुस्कान पर मोहित होकर वरमाला उन्हीं को पहना दी. तब राजा ने लक्ष्मणा का
विवाह श्री कृष्ण से कर दिया.
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श्री कृष्ण-सत्यभामा और
श्री कृष्ण-जाम्बवती
के
विवाह की कथा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
(स्यमन्तक मणि की
कथा से ही श्री कृष्ण-सत्यभामा और श्री कृष्ण-जाम्बवती के विवाह की कथा सम्बन्धित
है)
द्वारिकापुरी में
सत्राजित् नाम का एक य़ादव रहता था. उसने बहुत दिनों तक सूर्य नारायण भगवान का तप
करके स्यमन्तक मणि प्राप्त की थी. उसके प्रभाव से शीघ्र ही सत्राजित् धनवान
हो गया. स्यमन्तक मणि की नित्य पूजा अर्चना करने से उसे बीस मन सोना नित्य
प्राप्त होता था. एक बार सत्राजित् स्यमन्तक मणि को गले में डालकर राजा
उग्रसेन की सभा में गया. सूर्य के समान प्रकाश फैलाने वाली स्यमन्तक मणि की
ओर सभी का ध्यान गया.
एक बार श्री कृष्ण ने सत्राजित् से स्यमन्तक
मणि राजा उग्रसेन को देने की बात कही क्योंकि राजा सब मनुष्यों में श्रेष्ठ है
और जिस प्राणी के पास जो श्रेष्ठ वस्तु हो उसे राजा को देनी चाहिये. यह कथन सुनकर
सत्राजित् उदास हो गया और श्रीकृष्ण का कथन उपने भाई प्रसेन से कहा. प्रसेन को यह
सुनकर क्रोध आया और उसने वह मणि सत्राजित् से लेकर अपने गले में डाल ली. एक बार
प्रसेन शिकार के लिये वन में गया, वहाँ एक पर्वत की गुफा के निकट पहुँचा, उस गुफा
में एक शेर रहता था. शेर ने प्रसेन और उसके घोड़े को मारकर स्यमन्तक मणि को
गुफा में डाल दिया. फिर जाम्बवान नाम के रीछ ने शेर को मार डाला और वह मणि लेकर
अपनी गुफा में चला गया. मणि के प्रभाव से जाम्बवान की अँधेरी गुफा जगमगा उठी.
इधर सत्राजित् को शक हुआ कि श्री कृष्ण ने
उसके भाई प्रसेन को मारकर मणि प्राप्त कर ली है. जब श्रीकृष्ण को इस मिथ्या कलंक
का पता लगा तो वह अपने कुछ साथियों के साथ प्रसेन को ढ़ूँढ़ने वन में गये. वन में
जाकर पता लगा कि प्रसेन को शेर ने मार डाला है. शेर के पंजों के निशान देखते हुये
वह एक गुफा के पास पहुँचे जहाँ जाम्बवान् ने शेर को मार डाला था. श्री कृष्ण को
बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसा कौन सा जानवर है जिसने शेर को मार डाला. अपने साथियों को
बाहर रोकर श्रीकृष्ण गुफा के अन्दर गये. गुफा में जाम्बवान् की पुत्री जाम्बवती स्यमन्तक
मणि से खेल रही थी, मणि के प्रभाव से सारी गुफा जगमगा रही थी. सत्ताईस दिन तक
श्रीकृष्ण और जाम्बवान् में युद्ध हुआ. अन्त में जाम्बवान् को बोध हुआ कि यह
श्यामल स्वरूप श्री रामचन्द्र जी के ही अवतार हैं तब वह श्री कृष्ण के चरणों में
गिर गया और प्रार्थना करने लगा. तब श्री कृष्ण ने अपने वहाँ आने का कारण बताया.
जाम्बवान् ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री जाम्बवती और स्यमन्तक मणि श्रीकृष्ण
को सौंप दी.
जब श्री कृष्ण द्वारिका वापस आ गये तो राजा
उग्रसेन ने सभा में सत्राजित् को बुलाकर मणि वापस कर दी. मणि को हाथ में लेकर
सत्राजित् को अपराध बोध हुआ कि मैंने मिथ्या ही श्री कृष्ण पर कलंक लगाया. अपराध
बोध से मुक्त होने के लिये सत्राजित् ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण
से कर दिया और दहेज में स्यमन्तक मणि दे दी. श्री कृष्ण ने सत्यभामा को तो
स्वीकार कर लिया लेकिन मणि सत्राजित् को ही वापस कर दी.
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सोलह हजार एक सौ कन्याओं का
विवाह
श्री कृष्ण के साथ
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
भौमासुर(नरकासुर)
नाम का पृथ्वी का अत्यन्त बलवान पुत्र था, जिसकी राजधानी प्राग्योतिषपुर थी.
भौमासुर ने पृथ्वी के अनेक राजाओं को परास्त कर दिया और उनकी कन्याओं का अपहरण कर
अपने घर में कैद कर लिया. धीरे-धीरे राज-कन्याओं की संख्या सोलह हजार एक सौ हो
गयी, तब वह सोचने लगा कि जब इनकी संख्या एक लाख हो जायेगी, तो एक साथ इन सबसे
विवाह करूँगा. जब श्रीकृष्ण को ज्ञात हुआ कि भौमासुर ने राज-कन्याओं को बंदी बना
रखा है तो तुरन्त ही वह भौमासुर के राज्य में गये और भौमासुर को मारकर राज-कन्याओं
को आजाद किया. तब राज-कन्याओं ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि हे प्रभु आपने
हमें मुक्त कराकर हमारे ऊपर असीम कृपा बरसाई है अब आप कृपा कर हमें अपने चरणों की
दासी बनाकर अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दें, क्योंकि राक्षस के यहाँ रहने के कारण
समाज में हमारे लिये अन्यत्र कोई स्थान नहीं है. तब श्रीकृष्ण उन सोलह हजार एक
सौ कन्याओं को लेकर द्वारिका आ गये. वहाँ राजा उग्रसेन की आज्ञा से उन सोलह हजार
एक सौ कन्याओं का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया गया, वे सब दिन-रात श्रीकृष्ण की
सेवा करने लगीं।
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