मृणालों-सी
मुलायम बाँह ने सीखी नहीं उलझन,
सुहागन लाज में
लिपटा शरद की धूप जैसा तन।
अँधेरी रात में
खिलते हुये बेले सरीखा मन,
पंखुरियों पर
भँवर के गीत-सा मन टूटता जाता।
मुझे तो वासना
का विष हमेशा बन गया अमृत,
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद।
धर्मवीर भारती
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