Tuesday, April 8, 2025

 

मृणालों-सी मुलायम बाँह ने सीखी नहीं उलझन,

सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन।

अँधेरी रात में खिलते हुये बेले सरीखा मन,

पंखुरियों पर भँवर के गीत-सा मन टूटता जाता।

मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत,

 बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद।

                                  धर्मवीर भारती

 


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