Tuesday, August 8, 2017


हिन्दी गजल-विद्रोह के स्वर
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल से कही जाती रही गजल-विधा का समुचित विकास हिन्दी भाषा में आधुनिक काल के अस्सी और नब्बे के दशक में हुआ है. लगभग चालीस वर्षों में अनेक सुधी हिन्दी कवियों ने हिन्दी भाषा में गजलें कही हैं और हिन्दी साहित्य में गजल विधा को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. दशकों पुरानी हिन्दी गजल का शतकों पुरानी उर्दू गजल के समकक्ष बैठना व उर्दू गजल से तुलनात्मक अध्ययन सम्भव हो पाना अपने आप में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है.

हिन्दी गजल की उपलब्धि संख्यात्मक व गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से सराहनीय है. कुछ गजल संकलन तो स्वतन्त्र कवियों के हैं जैसे- पुरूषोत्तम प्रतीक का घर तलाश कर, विज्ञान व्रत का बाहर धूप खड़ी है, रामकुमार कृषक का नीम की पत्तियाँ, दुष्यंत कुमार का साये में धूप, डॉ0 कुँअर बेचैन का दीवारों पर दस्तक,
शिवओम अम्बर का आराधना अग्नि की, आदि; और कुछ गजल संकलनों में अनेक कवियों द्वारा कही गजलें संकलित हैं जैसे- इसी दरमियां, गजलें ही गजलें, नवीनतम हिन्दी गजलें, गजल सप्तक, आदि. विविध गजल संकलनों के अतिरिक्त हिन्दी की विविध पत्र-पत्रिकाओं में भी हिन्दी गजलें प्रकाशित हो रही हैं. इस प्रकार हिन्दी गजलों की संख्या लाखों से भी अधिक पहुँचती है. संख्यात्मक दृष्टि से तो हिन्दी गजल का अभूतपूर्व विकास हुआ ही है, साथ ही गुणात्मक दृष्टि से भी हिन्दी गजलों की उपलब्धि अद्वितीय है. भाव-पक्ष और शिल्प-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी गजल का स्थान गजल साहित्य में महत्वपूर्ण है.

हिन्दी गजल के समुचित विकास से पूर्व अधिकांश गजलों में प्रेम प्रसंगों की अभिव्यक्ति होती थी और गजलों का भावपक्ष शराब और शबाब के रंग में डूबा हुआ होता था. हिन्दी गजलों में मानव-मन को अनुभूत करने वाली विविध(वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, आदि) संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया गया है. हिन्दी गजलों में पारम्परिक गजलों से भिन्न आम आदमी के प्रेम प्रसंगों को अभिव्यक्त किया गया है. जैसे एक शेअर में शायर ने आम आदमी के रूप में जी रहे नायक की छवि अभिव्यक्त की है-

दिनभर हम मशगूल रहेंगे दुनियादारी में लेकिन
साँझ ढ़ले जब घर लौटेंगे याद तुम्हारी आएगी।
                                  राजगोपाल सिंह

मानव मन में जन्मे कुंठा, भय, संत्रास जैसे मानसिक विकारों की सफल अभिव्यक्ति हिन्दी गजलों में हुई है जैसे प्रस्तुत शेअर में शायर ने त्रासदी भरी जिंदगी जी रहे मानव की आत्म विश्लेषित अवस्था की अभिव्यक्ति की है-

जाने किसकी साजिश थी ये
मुझको मुझसे ही न मिलाया।
इक दिन मेरी खामोशी ने
मेरे भीतर शोर मचाया।
                    विज्ञान व्रत

हिन्दी गजलों में गजल-विधा के अनुरूप अप्रत्यक्ष रूप से शासन तंत्र, प्रशासन तंत्र,
पुलिस विभाग, न्याय विभाग, व्यापारी वर्ग, समाज सेवी संगठनों में व्याप्त अवसरवादिता, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार जैसी कुरीतियों पर व्यंग्य किये गये हैं. जैसे प्रस्तुत शेअर में शायर ने सिफारिश जैसी कुरीति पर व्यंग्य किया है-

नाव जर्जर, धार में है, पर किसी जलयान से
हम नहीं लाये सिफारिश पत्र कूलों के लिये।
                             चन्द्रसेन विराट

हिन्दी गजलों में समसामयिक समस्याओं जैसे- जनसंख्या बढ़ोत्तरी, विसंगत समाज, पर्यावरण प्रदूषण, आतंकवाद, आदि समस्यायों को भी सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया गया है. जैसे प्रस्तुत शेअर में शायर ने पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख कारण वनों के नष्ट होने की ओर इंगित किया है-

आपने खुद ही पुकारा है चिलकती धूप को
लोग पहले काटते थे नीम या पीपल कहीं।
                                  राजगोपाल सिंह

हिन्दी गजलों में भारतीय संस्कृति में व्याप्त कर्म के महत्व व मानवता के महत्व को अभिव्यक्त किया गया है, जो समस्त मानव सृष्टि के विकास के लिये परमावश्यक है. जैसे प्रस्तुत शेअर में शायर ने सच्चे कर्मयोगी के विषय में कहा है-

जिसे है चाह मंजिल तक पहुँचने की कुँअर वो ही
सदा बढ़ता रहा, खाकर भी वो ठोकर नहीं लौटा।
                                     डॉ0 कुँअर बेचैन

हिन्दी गजलों के राजनीतिक संवेदना से जुड़े वे अंश विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जिनमें किसी दल या नेता का नाम लेकर नहीं वरन् अप्रत्यक्ष रूप से राजनेताओं
के भ्रष्ट आचरण व स्वार्थी राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किये हैं. प्रस्तुत शेअर उल्लेखनीय हैं-
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिये
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।
                               दुष्यंत कुमार

इस चिलकती धूप में कुछ और भी ज्यादा जले
सर पै हम ताने हुये थे, शामियाने काँच के।
                                डॉ0 कुँअऱ बेचैन

हिन्दी गजलों का शिल्प पक्ष भी भाव पक्ष की भाँति नवीनता लिये हुये हैं. एक ओर जहाँ गजल विधा के स्वरूप के अनुकूल गजल विधा की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक, सम्प्रेषणीय, गद्यात्मक व कोमलकांत पदावली युक्त है, वहीं गजलों में नये मुहावरों का प्रयोग, नवीन प्रतीकों का प्रयोग, सुन्दर बिम्बों की अभिव्यक्ति, नवीन उपमानों का प्रयोग, मानवीकरण अलंकार की सफल अभिव्यक्ति हिन्दी गजलों के सशक्त शिल्प पक्ष के परिचायक हैं.

हिन्दी गजलों में जिस किसी शेअर में किसी पौराणिक या ऐतिहासिक कथा को अभिव्यक्त किया गया है वह शेअर हिन्दी गजलों की संक्षिप्त कलेवर में व्यापक भावाभिव्यक्ति को दर्शाते हैं. जैसे- प्रस्तुत शेअर में शायर ने महाभारत युद्ध के पौराणिक प्रसंग को अभिव्यक्त किया है-


बीच में एक अर्जुन पशेमान था
कुछ इधर भाई थे कुछ उधर दोस्तों।
                         ज्ञान प्रकाश विवेक

हिन्दी गजलों के माध्यम से उर्दू बह्रों(बह्रे मुतकारिब, बह्रे रमल, बह्रे मुतदारिक, बह्रे हजज, आदि) का हिन्दी साहित्य में प्रवेश हुआ है, जिनका प्रयोग भविष्य में हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में भी हो सकता है.

भावपक्षीय व शिल्पपक्षीय गुणों से परिपूर्ण हिन्दी गजलों ने पाठकों व श्रोताओं के ह्रदय में जो विशिष्ट स्थान बनाया है वो हिन्दी गजल की सबसे बड़ी उपलब्धि है. जबकि आम जिन्दगी से जुड़े प्रसंगों को हिन्दी साहित्य में नई कविता के पक्षधर कवि नीरसता व संप्रेषण शून्यता के साथ पाठकों व श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत कर रहे थे, ऐसे समय में एक सरस विधा का पाठकों व श्रोताओं के बीच लोकप्रिय होना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और यह सरस विधा हिन्दी गजल ही है.











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