Friday, August 16, 2019




तुलसीदास जी के काव्य में लोकमंगल की भावना
डॉ. मंजूश्री गर्ग

साहित्य की रचना समाज के हित के लिये ही की जाती है और तुलसीदास जी ने तो समस्त काव्य लोकमंगल की भावना से ही रचा है. इसीलिये तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य का विषय राम कथा को चुना था कथा जो सकल लोक हितकारी.

मंगल करनि कलि मल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की।
और रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही अपनी लोकमंगल की भावना की अभिव्यक्ति भी की है-

मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारी।

कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई।

लोक मंगल के लिये आवश्यक है कि समाज में परस्पर प्रेमभाव हो, समन्वय की भावना हो. रामचरित मानस प्रारम्भ से अंत तक समन्वय का काव्य है. जहाँ परिवार के सदस्यों के बीच परस्पर प्रेम-भाव, मेल-भाव होता है. परिवार के छोटे सदस्य बड़े सदस्यों का आदर करते हैं और बड़े सदस्य छोटे सदस्यों को भरपूर स्नेह और प्यार देते हैं. वहाँ परिवार में मंगल ही मंगल होता है. रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, सास-बहू में, रानियों में आपस में परस्पर स्नेह व आदर के भाव अभिव्यक्त किये हैं. भूल से परिवार के किसी सदस्य से कोई अपराध हो भी जाता है तो उसे तिरस्कृत न करके प्यार से अपना बनाया जाता है. जैसे-
रानी कैकयी के द्वारा राम के वन-गमन का आदेश देने पर भी श्रीराम कैकयी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं रखते हैं वरन् चित्रकूट में सब अयोध्यावासियों के आने पर सर्वप्रथम माता कैकेयी से ही प्रेमपूर्वक मिलते हैं.

इसी प्रकार जब समाज के विविध वर्गों, जातियों, धार्मिक समुदायों के बीच परस्पर प्रेम-भाव व मेल-भाव होता है तो समाज में मंगल ही मंगल होता है. रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने राजा और प्रजा के बीच, गुरू और शिष्य के बीच, गृहस्थी और संयासी के बीच, विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच परस्पर समन्वय दिखाया है. तुलसीदास जी सबकी आराधना करते हुये कहते हैं-
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानी।
बंदऊँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्व
बंदऊँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्व।
समाज में परस्पर प्रेम-भाव के लिये तुलसीदास जी कहते हैं-
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।
तुलसीदास जी ने सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में राम की आराधना की है-

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।
मोरें मत बड़ नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बधवेदा।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

शिव भक्तों और राम भक्तों में सामंजस्य बनाने के लिये तुलसीदास जी ने राम को शिव का उपासक बताया है और शिव को राम का उपासक-
शिव जी द्वारा राम की आराधना-

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।

ऐसे ही श्रीराम को शिव जी का भक्त कहा है-

शिव पद कमल जिन्हहिं रति नाहीं। रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं।

तुलसीदास जी ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी समुदायों के बीच के भेद को मिटाते हुये कहते हैं-

भगतहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।

समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाने के लिये तुलसी दास जी ने भरत और निषाद राज को गले मिलते हुये दिखाया है वहीं श्रीराम को भीलनी शबरी के झूठे बेर खाते हुये दिखाया है.

समाज में मंगल तभी हो सकता है जब समाज के व्यक्ति परस्पर एक दूसरे की पीड़ा को समझें और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें-

परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

जो व्यक्ति समाज के हित के लिये अपने प्राण तक नयौछावर कर देता है उसकी प्रशंसा संत जन भी करते हैं-

परहित लागी तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहि तेही।


इस प्रकार तुलसी दास जी ने अपने काव्य में यथासंभव समाज में समन्वय स्थापित करने की कोशिश की है व लोक में मंगल हो, ये प्रयास किया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है-
लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनायें, जातियाँ, आचार, निष्ठा और विचार पद्यतियाँ प्रचलित हैं. तुलसी का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है लोक और शास्त्र का समन्वय, गृहस्थी और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय है. रामचरित मानस शुरू से अंत तक समन्वय का काव्य है.


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