आँखें कहें, अपलक देखता रहूँ
कान कहें, मौन हो सुनता रहूँ।
तुम्हीं कहो! प्रिय रागिनी! कैसे?
तुमसे अपने मन की बात कहूँ।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
सवालात सी दीवार उठती सब ओर से
जिंदगी जब भी नया मोड़ लेती है।।
तुम साथ थे मेरे
तुम साथ हो मेरे
तुम साथ रहोगे हमेशा।
मेरी बातों में तुम
मेरे ख्बाबों में तुम
मेरी यादों में तुम
मेरे गीतों में तुम
मेरी गजलों में तुम
तुम ही तुम हो
जीवन के हर में पल में तुम।
छुईमुई सा तन सिमटा नजर की छुअन से
सुरमई सा मन खिला मुस्कान की अगन से।
अगन में जलते-जलते बीतेगी उम्र सारी
जो बुझा दे इसे वो निर्मल धार कहीं नहीं।।
जिंदगी के शोख सपने
फैले थे मन-पटल पर।
सोख्ते* की तरह सोख लिये
जिंदगी की कड़ी धूप ने।।
*सोख्ता-Blotting Paper
मन के पाँवों में बँधे हैं, उनकी यादों के घुँघरू।
सँभाल के पाँव रखे चाहे जितना, झनकते ही हैं ये घुँघरू।।
‘पर‘ हैं पर उड़ने की अभिलाषा मन में
पिंजरे से तकते हैं परिंदे आकाश को।।
खुद को बनाने से पहले
खुद को मिटाना जरूर था।
अपने आप अपनी तकदीर
बनाना आसान न था।।
सूरज से पहले आकाश में किरणें आती हैं।
गीत से पहले वाद्य से सरगम आती है।
फूल से पहले हवा में सुगंध आती है।
तुम से पहले अधरों पे मुस्कान आती है।।
बरसते मेघ-दल से कहिये,
पिघलते हिम-खंड से कहिये।
कहनी है बात दूर तलक तो,
बहती हुई पवन से कहिये।।
नजर में सज के नगीना बन गये।
गिर गये तो कहलायेंगे पत्थर।।
माँ को भूले, माटी भूले
भूल गये गाँव शहर।
पिज्जा, बर्गर की खुशबू में
भूले रोटी की महक।।
खारे आँसू सारे सागर ने पी लिये
और मीठा जल लिये बहती रही नदी।
तारे झिलमिलायें
चाँद मुस्कुराये।
रात में तुम आये
मन भी गुनगुनाये।।
बहने दो स्नेह की सहज, सरस, मधुर धारा।
सिंचित हो जिससे महके जीवन की बगिया।।
ठोकर नहीं कहती कि रोक दो बढ़ते कदम।
कहती है बढ़ते रहो आगे सँभल-सँभल कर।।
जीवन खिले तो खिले ऐसे जैसे खिले डाल पर फूल,
उपवन को सजाये और पवन को महकाये।
यश फैले तो फैले ऐसे जैसे फैलें प्रातः की किरणें
अंधकार को दूर करें और उजियारा फैलायें।।
बिन थामे ही हाथ, हमेशा
थामे रहते हाथ हमारा।
कैसे कह दें! साथ नहीं हो,
पल-पल साथ निभाते हो।।
टूट कर बिखरना ही नहीं, किस्मत हम फूलों की,
पलभर मुस्कुरायें तो, सदियां महकेंगी हमसे।
कही-अनकही बातें,
आधी-अधूरी मुलाकातें,
कोरे दिन औ’ कोरी रातें
बहुत कुछ लिख जाती हैं ये यादों की स्याही।
पावन एक स्वरूप है, भिन्न-भिन्न हैं नाम
जो सीता के राम हैं, वे ही राधेश्याम।
सुबोध श्रीवास्तव
अधूरा प्यार भी कम खूबसूरत नहीं होता जनाब!
कभी जनाब! बाहर आ के अष्टमी के चाँद को तो देखो।
कितनी आशायें, अपेक्षायें समेटे है अपने आँचल में।
दिन दिन घटते दिन, लंबी होती रातें।
धीरे से दस्तक दी सर्दी ने आने की।।
बिन रंग जो रंग दे जीवन आपका।
है वही सच्चा रंगरेज आपका।।
शांत बहुत शांत हैं सागर की लहरें।
तूफान आने की प्रबल संभावनायें हैं।।
नजरों के नजर से मिलते ही
छा गया प्रीत रंग ऐसे ही
जैसे आकाश समुद्र के मिलते ही
छा जाये नील रंग नजरों में।
चाहतें जो हो ना सकीं पूरी।
दीपक जला कर उतार दीं पानी पे।।
हमने जीना सीख लिया है,
झूठ बोलना सीख लिया है।
महफिल में परिधानों सा,
मुस्कान पहनना सीख लिया है।।
सम्बन्धों की देहरी पर खिले प्यार के फूल।
रखना कदम आगे विश्वासों के साथ।।
सुबह की सुनहली किरण सा प्यार तुम्हारा।
ओस की बूँद सा मधुरिम प्यार तुम्हारा।
दौज के चाँद सा देदीप्य प्यार तुम्हारा।
सूक्ष्म होकर भी आशाओं भरा प्यार तुम्हारा।