दावते-श्रीराज
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
गाँव में दो दोस्त थे रमेश और दिनेश. रमेश पढ़-लिख कर शहर में नौकरी करने चला
गया और दिनेश गाँव में खेती का काम देखने लगा. कुछ समय पश्चात् दिनेश को अपने
दोस्त की बहुत याद आयी और वह रमेश से मिलने शहर चला गया. रमेश अपने पुराने दोस्त
से मिलकर बहुत खुश हुआ. रमेश अपने दोस्त के आदर-सत्कार के लिये बाजार से स्वादिष्ट
खाना व मिठाई लेकर आया. दिनेश को खाना बहुत अच्छा लगा, लेकिन उसे इस तरह रमेश का बाजार
से खाना लाना अच्छा नहीं लगा जबकि रमेश को घर पर भी खाना बनाना आता था. रमेश के
पूछने पर दिनेश ने खाने के विषय में कहा दावत बहुत अच्छी रही लेकिन दावते-
श्रीराज की बात ही कुछ और है. दूसरे दिन रमेश अपने दोस्त के लिये और मँहगा
खाना व मिठाई लेकर आया उसने सोचा कि आज मेरा दोस्त खाना खाकर अवश्य खुश होगा.
दिनेश को अपने दोस्त का इस तरह पैसा खर्च करना अच्छा नहीं लगा और खाना खाकर फिर
उसने वही उत्तर दिया कि दावते-श्रीराज की बात ही कुछ और है. दिनेश का उत्तर
सुनकर रमेश को निराशा हुई. दिनेश ने भी सोचा कि यदि वह कुछ और दिन शहर में रूकेगा तो
उसके दोस्त पर इस तरह खर्च का बहुत बोझ बढ़ जायेगा और महीने का वेतन कुछ ही दिनों
में खर्च हो जायेगा. दिनेश अपने दोस्त को गाँव आने की दावत देकर वापस अपने घर आ
गया.
कुछ समय पश्चात् रमेश अपने दोस्त से मिलने गाँव गया. दिनेश अपने दोस्त को
देखकर बहुत खुश हुआ, उसने बड़े प्रेम से अपने दोस्त के लिये सरसों
का साग और मक्के की रोटी बनायी. रमेश को खाना बहुत स्वादिष्ट लगा लेकिन वो तो मन
में दावते-श्रीराज की चाह लेकर आया था. दूसरे दिन भी दिनेश ने अपने हाथ से
साधारण खाना बनाया, खाना खाते हुये दिनेश ने अपने दोस्त से पूछा कि खाना कैसा लगा.
रमेश ने संकोच करते हुये कहा कि खाना तो अच्छा है लेकिन तुम वो दावते-श्रीराज
की बात कर रहे थे किसी दिन वो बनाओ ना. रमेश की बात सुनकर दिनेश मुस्कुराया और
उसने कहा अरे भाई! यही तो दावते-श्रीराज है जब तक तुम्हारा जी चाहे यहाँ रहो
तुम्हारे आदर-सत्कार में कोई कमा नहीं आयेगी.
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