ऐसा क्यों?
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
एक साधु के दो शिष्य थे. एक शिष्य का नाम सदानन्द था और दूसरे शिष्य का नाम
विपुल था. सदानन्द सदाचारी व्यक्ति था, हमेशा दूसरों की सेवा करना, सदा सच बोलना,
उसके दिन-प्रतिदिन के आचरण में शामिल था. विपुल का आचरण साधु के लाख समझाने पर भी
नहीं सुधरा, उसे हमेशा दूसरों को सताने में, चोरी करने में ही आनन्द आता था. एक
दिन सुबह दोनों शिष्य साधु का अभिवादन कर अपने-अपने कर्म के लिये कुटिया से बाहर
निकले, लेकिन थोड़ी देर बाद दोनों शिष्य कुटिया में वापस आ गये. सदानन्द का चेहरा
उदास था, क्योंकि पैर में काँटा चुभ जाने के कारण पीड़ा हो रही थी. जबकि विपुल खुश
था, कयोंकि उसके हाथ बिना परिश्रम के ही गिन्नी से भरी थैली हाथ लग गयी थी. विपुल
के हाथ में गिन्नी की थैली देखकर सदानन्द को पीड़ा के साथ-साथ क्रोध भी आ गया और
उससे नहीं रहा गया. सदानन्द ने साधु से पूछा कि साधु जी मेरे आचरण आपके बताये अनुसार सद्कर्मों
की ओर हैं जबकि विपुल के आचरण आपके लाख समझाने पर भी दुष्कर्मों की ओर हैं. फिर भी
आज सुबह-सबह मेरे पाँव में काँटा चुभ गया और विपुल को गिन्नी सो भरी थैली मिली,
ऐसा क्यों?
साधु ने शान्त मन से अपने दोनों शिष्यों को अपने पास बैठने के लिये कहा और
स्वयं ने अपनी दिव्य दृष्टि से दोनों शिष्यों के भाग्य को जाना. तब साधु ने कहा, सदानन्द तुम्हारे भाग्य फल के अनुसार आज के दिन तुम्हें फाँसी होनी थी
किन्तु तुम्हारे सद्कर्मों के फल से केवल तुम्हारे पाँव में काँटा चुभा है और
विपुल को उसके भाग्य फल के अनुसार आज के दिन राज सिंहासन प्राप्त होना था किन्तु
उसके दुष्कर्मों के फल से केवल गिन्नी से भरी थैली ही मिली है.
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