Friday, October 12, 2018




हिन्दी एकांकी का विकास

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

एक अंक वाले नाटकों को एकांकी कहते हैं. अंग्रेजी में वन एक्ट प्ले शब्द के लिये हिन्दी में एकांकी नाटक और एकांकी दोनों ही शब्द प्रचलित हैं. पश्चिम में एकांकी विधा प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रचलित व लोकप्रिय हुई. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में एकांकी का प्रचलन बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में हुआ. लेकिन इससे पूर्व भी पूरब और पश्चिम में एकांकी साहित्य का उल्लेख मिलता है. दशरूपक और साहित्यदर्पण में वर्णित व्यायोग, प्रहसन, भाग, वीथी, नाटिका, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रकाशिका, उल्लाप्य, काव्य प्रेखण, श्रीगदित, विलासिका, प्रकरणिका, हल्लीश, आदि रूपकों, उपरूपकों को आधुनिक एकांकी साहित्य का पूर्वरूप माना जा सकता है. साहित्य दर्पण में एकांक शब्द का भी प्रयोग हुआ है.

पश्चिम के नाट्य साहित्य में आधुनिक एकांकी का सबसे प्रारंभिक व अविकसित रूप इंटरल्यूड है. पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में नैतिक व शिक्षापूर्ण अंग्रेजी  नाटकों में कोरे उपदेश की बोरियत को दूर करने के लिये प्रहसनपूर्ण अंश को जोड़ दिया जाता था, यही अंश इंटरल्यूड कहलाते थे. कर्टेन रेजर या पटोन्नायक आधुनिक एकांकी का पूर्ववर्ती रूप है. सन् 1903 ई0 में वेस्ट एण्ड थियेटर का बंदर का पंजा(मंकीज पॉ) नामक पट उत्थापक इतना मनोरंजक सिद्ध हुआ कि दर्शक बिना नाटक देखे हुये ही जाने लगे.

वास्तव में एकांकी एक स्वतंत्र विधा है किसी नाटक का अंश नहीं है. पर्सी वाइल्ड के अनुसार, एकांकी में जीवन की अभिव्यक्ति क्रमिक एवम् व्यवस्थित ढ़ंग से होती है. सर्वोच्च अन्विति तथा मितव्ययिता इसकी अनिवार्य विशेषतायें है.

डॉ0 रामकुमार वर्मा के अनुसार, एकांकी नाटक में अन्य प्रकार के नाटकों की अपेक्षा विशेषता होती है. उसमें एक ही घटना होती है और वह घटना नाटकीय कौशल से ही कौतूहल का संचय करते हुये चरम सीमा तक पहुँचती है. उसमें कोई अप्रधान प्रसंग नहीं रहता. एक-एक वाक्य और एक-एक शब्द प्राण की तरह आवश्यक रहता है.

सेठ गोविन्ददास के अनुसार, एकांकी की रचना एक ही विचार पर होती है. इस विचार का विकास संघर्ष से होता है तथा एकांकी में इसका कोई एक पक्ष ही प्रस्तुत किया जा सकता है.

भारतेन्दु द्वारा रचित प्रेमयोगिनी(1875) को हिन्दी का पहला एकांकी माना जाता है. यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है. आधुनिक हिन्दी एकांकी साहित्य की प्रथम मौलिक कृति जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक घूँट(1929) को माना जा सकता है. इसमें शिल्पगत महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलते हैं. नाटक की प्राचीन परम्पराओं(संगीत व्यवस्था, संस्कृत नाट्य प्रणाली का विदूषक, स्वगत कथन, आदि) के साथ-साथ आधुनिक एकांकी की विशेषतायें(स्थल की एकता, पात्रों का मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण, गतिशील कथानक, आदि) भी देखने को मिलते हैं. पाश्चात्य नाटककारों हैनरिक, इब्सन, गाल्सवर्दी, बर्नार्ड शॉ, आदि का प्रभाव भी इस युग के एकांकीकारों पर पड़ा. एंकाकीकारों ने कृत्रिमता व अस्वाभिवकता का बहिष्कार करके सामाजिक, पारिवारिक व दैनिक समस्याओं को एकांकियों का विषय बनाना प्रारंभ किया. नयी समस्यायें, विचारधारा व गद्यात्मक शिष्ट भाषा का प्रयोग हुआ. संवादों में सजीवता, संक्षिप्तता एवम् मार्मिकता की ओर ध्यान दिया गया. प्रहसन, फेंटेंसी, गीति नाट्य, ओपेरा, संवाद या सम्भाषण, रेडियो प्ले, मोनोड्रामा, आदि नवीन रूपों का विकास इसी समय हुआ.

हिन्दी एकांकी को एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा के स्तर पर पहुँचाने में डॉ0 रामकुमार वर्मा का अविस्मरणीय योगदान है. डॉ0 रामकुमार वर्मा द्वारा रचित बादल की मृत्यु नामक एकांकी को हिन्दी का पहला आधुनिक शिल्पयुक्त एकांकी कहा गया है. सर्वप्रथम रामकुमार वर्मा के एकांकियों में ही पश्चिमी रचना शिल्प का समग्र रूप से प्रयोग हुआ और आधुनिक हिन्दी एकांकी का स्पष्ट रूप सामने आया. डॉ0 वर्मा के महत्वपूर्ण एकांकी संकलन हैं- पृथ्वीराज की आँखें(1936), रेशमी टाई(1941), विभूति(1947), रूप तरंग(1948), कौमुदी महोत्सव(1948), रजतरश्मि(1952), आदि. वर्मा जी ने मुख्यतः ऐतिहासिक व सामाजिक नाटक लिखे हैं. संकलन त्रय(स्थान, समय और घटना) का निर्वाह, रंग संकेत का समुचित विधान, कथानक के निरंतर विकास के रहते हुये, उत्सुकता का विधान करते हुये तीव्रता और क्रियात्मकता का संयोजन किया है. धीरे-धीरे अन्य कथाकार भी एकांकी लिखने लगे.

प्रसिद्ध नाटककार सेठ गोविंददास ने विविध रूपी एकांकी लिखे. एक दृश्य वाले, एकाधिक दृश्य वाले, एकपात्रीय, बहुपात्रीय, यथार्थमूलक, सामाजिक, भावात्मक तथा विचारात्मक अनेक प्रकार के एकांकी लिखे. सेठ गोविंददास द्वारा रचित विटमेन, अधिकार लिप्सा, वह मरा क्यों नहीं, हंगर स्ट्राइक, कंगाल नहीं, ईद और होली, सच्चा जीवन प्रसिद्ध एकांकी हैं.

पं0 उदयशंकर भट्ट के एकांकी भी नवीन शैली व धारा के परिचायक हैं. स्त्री ह्रदय, समस्या का अंत, धूमशिखा, अंधकार और प्रकाश, आदिम युग, पर्दे के पीछे, चार एकांकी, अभिनव एकांकी, दो अतिथि, असली नकली प्रसिद्ध एकांकी हैं. आपके एकांकी रूपक के रूप में आकाशवाणी से प्रसारित होते रहे हैं. मत्स्य गंधा, विश्वामित्र, राधा आपके भाव नाट्य हैं.

उपेन्द्रनाथ अश्क ने जीवन के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति एकांकियों में की है. सामाजिक विसंगतियाँ, रूढ़ियों, गलत मान्यताओं को व्यंग्यात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है. आपने कठोर वास्तविकता की सच्चाई को एकांकियों में जैसा का तैसा अभिव्यक्त किया है, आप न तो कोई समाधान देते हैं ना ही उत्पन्न प्रश्नों के उत्तर. आपके प्रसिद्ध एकांकी हैं- जोंक, समझौता, घड़ी, छठा बेटा, लक्ष्मी का स्वागत, विभा, तौलिये, आदिमार्ग, तूफान से पहले, आदि.

पं0 लक्ष्मी नारायण मिश्र ने अशोक वन, प्रलय के पंख, एक दिन, नारी का रंग, स्वर्ग में विप्लव, कावेरी में कमल, आदि एकांकियों के माध्यम से वस्तुवादी, यथार्थमूलक जीवन दर्शन का प्रतिपादन किया है.

जगदीश चन्द्र माथुर द्वारा रचित एकांकी विचार प्रधान और घटना प्रधान होते हुये भी मंचीय विशेषताओं से पूर्ण हैं. आपके प्रमुख एकांकी हैं- भोर का तारा, मेरी बाँसुरी, रीढ़ की हड्डी, मकड़ी का जाला, कलिंग विजय, आदि. आपके एकांकी अभिनेय हैं और मंचों पर अभिनीत किये जाते रहे हैं. आपने एकांकियों में रंग संकेतों का विधान किया है.

विष्णु प्रभाकर जी ने अनेक प्रकार के एकांकी लिखे हैं- सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, मनोवैज्ञानिक, हास्य-प्रधान. आपने शिल्प की दृष्टि से मंचीय और रेडियो एकांकी भी लिखे हैं. आपके प्रसिद्ध एकांकी हैं- माँ का ह्रदय, संस्कार और भावना, रक्त चंदन, माँ बाप, टूटते परिवेश, आदि.

मोहन राकेश ने नाटकों की भाँति एकांकी में भी नये-नये प्रयोग किये. आपके एकांकी कौतूहल और जिज्ञासा से शुरू होते हैं और कथानक चरमोत्कर्ष पर समाप्त होता है, आगे नहीं जाता. अण्डे के छिलके, सिपाही की माँ, प्यालियाँ टूटती हैं, बहुत बड़ा सवाल आपके प्रसिद्ध एकांकी हैं.

हिन्दी की अन्य विधाओं के समान एकांकी विधा में भी नये-नये प्रयोग किये गये. मंचीय एकांकी के अतिरिक्त ध्वनि एकांकी, ओपेन एयर एकांकी, चित्र एकांकी(टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले), आदि. कुछ बेमानी(एब्सर्ड) नाटक भी लिखे गये. जिनमें प्रमुख हैं- मम्मी ठकुराइन(डॉ0 लक्ष्मी नारायण), ढ़ोल की पोल(ध्वनि नाटक-चिरंजीत), आदमखोर(ओपेन एयर एकांकी-राजेंद्र), सुअर बाड़े का जमादार(गली एकांकी- कंचन कुमार), आदि.

अति आधुनिक युग में लिखे जा रहे अधिकांशतः एकांकियों में प्रायः गीतों का अभाव होता है, प्रकाश का जमकर प्रयोग किया जाता है, पर्दों की जरूरत बहुत कुछ समाप्त हो गयी है, संवाद अत्यंत कसे हुये और चुटीले हैं. चित्र एकांकियों में अब पहाड़ी नदी की चंचलता, सड़कों पर भागती कारें, समुद्र में चलते यान, आदि दिखाये जाते हैं.



 --------------------------------
------------















No comments:

Post a Comment