Wednesday, October 24, 2018




श्री जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी में दर्शन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

श्री जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी में प्रमुख प्रत्यभिज्ञा दर्शन है इसके प्रमुख गुणों के साथ-साथ समरसता, आनंदवाद का वर्णन है. साथ ही प्रत्यभिज्ञा दर्शन के सहयोगी बौद्ध दर्शन के प्रमुख गुण- दुःखवाद, क्षणिकवाद, महाकरूणा भी देखने को मिलते हैं.
प्रत्यभिज्ञा दर्शन-
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में माया शिवाश्रित है और चित्-शक्ति के अवधान के बिना यह निष्क्रिय ही रहती है. इस तरह माया परम शिव की सृजन शक्ति है और परम शिव में स्थित होने के कारण शिव-तत्व से उसका अभेद भी है. वह शिव की आनंदरूपा शक्ति है. कामायनी में प्रसाद जी ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन की सबसे अधिक अभिव्यक्ति की है. जैसे कामायनी की नायिका श्रद्धा ज्योतिर्मयी प्रकाशस्वरूपा है, उसी से संयुक्त होकर मनु अपने महाप्रकाश रूप और आनंदस्वरूप का अभिज्ञान कर पाते हैं.

सब भेद भाव भुलाकर, दुःख-सुख को दृश्य बनाता
मानव कह रे! यह मैं हूँ, यह विश्व-नीड़ बन जाता।


उपर्युक्त पंक्तियों में प्रत्यभिज्ञादर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त अभिव्यक्त हुआ है. जीवात्मा को प्रत्यभिज्ञान होने पर विश्वात्म का अनुभव होता है. दुःख-सुख को दृश्य बनाता में शिव तत्व के विश्वोत्तीर्णता की ओर संकेत है. परम शिव देश, काल, आदि से परे विश्वोत्तीर्ण परम स्वतन्त्र, आनंदरूप, सत्य और ज्ञान स्वरूप है; किन्तु जब उसमें सृष्टि की कामना जगती है तो विश्वोत्तीर्ण से विश्वमय बन जाता है और तब विश्वात्म का भाव ही विश्व-नीड़ बन जाता है.

प्रत्यभिज्ञाह्रदयम् का सम्पूर्ण दर्शन ही चिति, चित्त और चेतन पर आधारित है. परम शिव अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के चलते चिति के द्वारा विश्वोत्तीर्ण और विश्वात्मक रूप में स्थित रहता है. चिति जो शिव शक्ति है, परम शिव से अभिन्न है. परम शिव में सृष्टि निर्माण की कामना होने पर चिति ही जगत में अभिव्यक्त होती है, क्योंकि यह चिति इच्छा-ज्ञान-क्रिया रूपिणी भी है. प्रसाद जी चित को महाचिति से सम्बोधित करते हैं-

कर रही लीलामय आनंद, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम, इसी में सब होते अऩुरक्त।


प्रत्यभिज्ञादर्शन में चिति लीलामय व्यक्तिकरण ही नहीं है, वह भेदमूला भी है, जिसके कारण द्वैत पनपता है-

चिति केंद्रों में जो संघर्ष चला करता है,
द्वयता का जो भाव सदा मन में भरता है.

यह जगत परम शिव की तरह ही शाश्वत है, इसलिये कि तिरोहण में यह उसी शिव में अवस्थित है और व्यक्त में उसकी लीला है. यह लीला चिरन्तन आनंदमय है-

चिति का स्वरूप यह नित्य जगत
वह रूप बदलता है शत-शत;
कण विरह-मिलनमय नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत।


प्रत्यभिज्ञादर्शन में जिसे कामकला कहा गया है प्रसाद कामायनी में उसे प्रेमकला कहते हैं-

यह लीला जिसकी विकस चली,
वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला।

प्रत्यभिज्ञादर्शन में स्पन्दन का बहुत महत्व है. महाचिति का स्पन्दन ही जगत को गतिशील करता है, वही भेदों का कारण बनता है और अभेद की भी स्थापना करता है. यह स्पन्दन ही है जिसने जगत को व्यस्त बनाया हुआ है, इसी स्पन्दन के कारण अखण्ड आनंद की यात्रा की प्रेरणा मिलती है-

विषमता की पीड़ा से व्यस्त, हो रहा स्पन्दित विश्व महान,
यही दुःख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान.

प्रत्यभिज्ञादर्शन में वेदान्तियों की तरह जगत का तिरस्कार न करके कामकला(कामायनी में प्रेमकला) के माध्यम से उसके प्रसार में निमग्न होना है-

काम मंगल से मंडित श्रेय, सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल, बनाते हो असफल भवधाम।

प्रसाद दी ने कामायनी में आध्यात्मिक और वासनात्मक काम के रूप का सर्जनात्मक काम में समन्वय किया है. यानि हम आध्यात्मिक काम को ज्ञान, सृजनात्मक काम को इच्छा और वासनात्मक काम को क्रिया मान लें तो देखेंगे कि इन तीनों का कल्याणकारी समन्वय कामायनी में हुआ है.

समरसता-

प्रत्यभिज्ञादर्शन में समरसता के सिद्धान्त का अत्यधिक महत्व है. जब जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त कर लेती है तो सामरस्य होता है जैसे जब नदी सागर से मिल जाती है तो नदी और सागर में सामरस्य स्थापित हो जाता है. लिंगायत दर्शन के अनुसार सामरस्य दूध और पानी का नहीं होता, दूध का जल में मिलना तो तादात्म्य कहलाता है. दूध और दूध का मिलना तथा पानी और पानी का मिलना ही सामरस्य होता है. तत्व एक होने पर अभिन्नता मिटते ही समरसता स्थापित हो जाती है.

समरसता का भाव निगम-आगमों सभी में मिलता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञादर्शन में जीव के अखण्ड-आनन्द की अनुभूति से जुड़ने को समरसता का भाव कहकर सर्वथा दर्शनगत मौलिक स्थापना की गई है. प्रसाद जी ने इसी प्रत्यभिज्ञादर्शन के आलोक में प्रत्येक जीवात्मा को समरसता का अधिकारी माना है-

नित्य समरसता का अधिकार, उमड़ता कारण जलधि समान.

किन्तु समरसता की स्थिति तो शिवत्व और सम की स्थिति है. समरसत्व प्राप्त करने से पूर्व जीवात्मा विषमता में रहती है, यह जग विषमता का ही रूप है और यह विषमता भी परम शिवत्व की संकुचन अवस्था है, इसलिये यह भी विगर्हणीय न होकर उसी परात्पर ब्रह्म का मधुमय अवदान है-

जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत जाओ उसको भूल।।

विषमता से होकर ही समरसता का मार्ग जाता है, दुःख की रात्रि के पिछले प्रहर में ही सुख का सूर्य उगने लगता है. इसलिये यह जगत ईश्वर की कल्याणी सृष्टि है, उपेक्षणीय नहीं है. दर्शन की शब्दावली में विषमता जीव का या संकुचन का सूचक है. विषम-चूँकि संकुचन(परम शिव का) होकर जीव रूप है, इसलिये इसमें सुख-दुःख के अनुभव रहते हैं. समरसता परम स्वतन्त्र शिव रूपा है, इसलिये वहाँ दुःख-सुख का तिरोहण होकर केवल अखंड आनंद ही रहता है और भेद बुद्धि भी समाप्त हो जाती है-

समरस थे जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था
चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।


आनंदवाद-

वास्तव में आनंदवाद आनंद साधना का दर्शन है. प्रसाद जी ने समरसता को आनंद का घटक माना है और व्यक्ति, समाज, प्रकृति की समरसता का विस्तृत काव्यमय वर्णन कर ऐहिक जीवन से लेकर अलौकिक अनुभवों तक आनंद की अभिव्यक्ति की है. व्यक्ति संज्ञा के आनंद के रूप में प्रसाद जी मनु के माध्यम से सभी अन्तर्विरोधों का चित्रण कर आनंद का मार्ग अभिव्यक्त करते हैं. समाज में प्रसाद जी विषमता को ही स्पन्दन मानते हैं, जिससे संसार की सांसारिकता अभिव्यक्त होती है. प्रसाद जी के अनुसार विश्व स्पन्दित होकर ही महान है, लेकिन इसमें प्रसाद जी नर और नारी, अधिकार और अधिकारी, शासक और शासित, व्यक्ति और समाज की समरसता स्थापित कर विश्व में आनंद प्राप्ति की जीवन-पद्धति का निर्देश करते हैं. समरसता में ही आनंद है, क्योंकि उसमें सुख-दुःख की संज्ञायें झर जाती हैं और दुःख होते हुये भी वह आनंद का मूल होता है. अखण्ड आनंद की उपलब्धि अद्वैत में ही सम्भव है, इसलिये द्वैत को नष्ट करके ही आनंद पाया जा सकता है.

कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।

प्रसाद जी उपर्युक्त कथन के माध्यम से सामान्य जन को ऐहिक जीवन की सफलता का रहस्य बताते हैं. प्रसाद जी जीवन में स्त्री और पुरूष के सामरस्य की तरह प्रकृति और पुरूष के सामरस्य में अखण्ड आनंद को देखते हैं. प्रसाद जी ने सामरस्य टूटने पर प्रलय दृश्यों की कल्पनायें की हैं. जड़-चेतन में एक तत्व को पहचानना ही आनंद को पहचानना है. समुद्र में जिस तरह लहरें उठकर भेदरूप दिखाई देती हैं, लेकिन वे समुद्र में लीन होकर अभेद हो जाती है उसी प्रकार साधक परम सत्ता में लीन होकर अभेदावस्धा को प्राप्त करता है-

वैसे अभेद सागर में प्राणों का सृष्टि-क्रम है,
सब में घुल मिलकर रसमय, रहता वह भाव चरम है.

प्रसाद जी के अनुसार लोक में सौंदर्य आनंद का परम विधायी गुण है. आनंद भाव को जितना विस्तार सौंदर्य में मिलता है, उससे अधिक उस परम सौंदर्य में ही सम्भव है. प्रसाद जी की यह सौंदर्यमयी आनंदमूला दृष्टि प्रकृति से होती हुई पुरूष तक पहुँचती है, जहाँ परम सुन्दर साकार हो गया है. प्रसाद जी के यहाँ प्रकृति जड़ नहीं है वह चेतन स्वरूपा है और पुरातन पुरूष उससे संयुक्त होकर परम आनंदित है-

चिर मिलित प्रकृति से पुलकित,
वह चेतन पुरूष पुरातन।
निज शक्ति तंरगायित था,
आनंद अम्बुनिधि शोभन।

प्रसाद जी की सौंदर्यापसना में व्याप्ति है और सात्विकता है, कम से कम कामायनी की सौंदर्यदृष्टि इसका उदाहरण है.

आनंद विधान के लिये प्रसाद जी श्रद्धा भावना पर बल देते हैं, इसलिये कि वह अन्तर्विरोधों को सुलझाकर शांति और शीतलता देने वाली है और जड़-चेतन के भेद को समाप्त करने वाली है-

जड़-चेतन की गाँठें वही सुलझन है भूल सुधारों की,
वह शीतलता है शान्तिमयी जीवन के उष्ण विचारों की।

                                       
यही श्रद्धा भावना हमें जड़-जंगम में एकरूपता का दर्शन कराती है, आनंदरूप उस परम सत्य तक पहुँचने का मार्ग निर्देशित करती है. दुर्बलताओं तक विजय पाने के लिये हमें शक्ति देती है और प्रेरित करती है. परम शिव के सौंदर्य प्रकाश में चेतना होकर विलसती है. मनुष्य-मानस के सौंदर्य का वह एकान्तिक आधार है, उससे तादात्मय् ही स्थायी आनंद का स्रोत है. प्रसाद जी श्रद्धा भावना की व्याप्ति और उसकी सम्पूर्णता को इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-

वह विश्व चेतना पुलकित, थी पूर्ण काम की प्रतिमा,
जैसे गम्भीर महाह्रदय हो, भरा विमल जल महिमा।

दुःखवाद-

प्रसाद जी पर बौद्ध दर्शन का भी प्रभाव था. गौतम बुद्ध दुःख को परम आर्य सत्य मानते थे और प्रसाद जी सुख के लिये दुःख की अनिवार्यता मानते थे-

दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात।
एक परदा यह झीना यह नील
छिपाए हैं जिसमें सुख गात।।

और दुःख को भूमा का मधुमय दान भी मानते थे, किन्तु नभ की डालों में जीवन-दुःख का प्रकाश ही उन्हें अधिक घेर रहा था. वह व्यथा की नीली लहरों में ही मणिगण देखते थे. इस जगत में उन्हें दुःख की आँधी और पीड़ा की लहरें दीख रही थीं-

विशव जिसमें दुःख की आँधी पीड़ा की लहरी उठती
जिसमें जीवन मरण बना था बुद्बुद् की माया नचती।

और जीवन मृत्यु का पर्याय हो रहा था. यहाँ सुख माया है और दुःख सत्य है.

क्षणिकवाद-

दुःखवाद के अतिरिक्त बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद का भी प्रसाद जी पर गहरा प्रभाव था. क्षण-क्षण जगत में परिवर्तन के बौद्धदर्शनगत रूप को प्रसाद जी ने कामायनी में भी अभिव्यक्ति किया है. जो अभी है वह अगले क्षण नहीं रहेगा और जो अगले क्षण होगा वह उससे आगे नहीं रहेगा-

यह स्फुलिंग का नृत्य एक पल आया बीता
टिकने को कब मिला किसी को यहाँ सुभीता.

किन्तु प्रसाद जी इस सतत् परिवर्तन में भी नित्यता मानकर जीवन को क्षणभंगुर तो मानते हैं लेकिन जगत तो नित्य ही मानते हैं. इसलिये यह जगत परम शिव का शक्ति रूप है और परम शक्ति शिव में ही समाहित और शिव से ही उद्भासित होती रहती है.

महाकरूणा-

बौद्ध दर्शन के महाकरूणा भाव का भी प्रसाद जी पर विशेष प्रभाव पड़ा था. कामायनी में तो प्रसाद जी ने श्रद्धा को विश्व की करूण कामना मूर्ति कहकर महाकरूणा के प्रतिरूप में चित्रित किया है. श्रद्धा बलि-पशु के चीत्कार से उसके प्रति करूणार्द्र हो उठती है. इड़ा द्वारा मनु से उसे विलग करने पर भी वह इड़ा की पीड़ा से विगलित होकर अपने पुत्र मानव को उसे सौंप देती है. श्रद्धा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व महाकरूणा का ही रूप है.

उस प्रकार प्रसाद जी ने प्रत्यभिज्ञादर्शन के अतिरिक्त ऐसे अन्य दार्शनिक प्रभावों को भी ग्रहण किया है जो प्रत्यभिज्ञादर्शन के अविरोधी हैं और उनकी आनंदवादी धारणा की संगति में हैं. कामायनी में दर्शनगत परिणतियों का वैचारिक महत्व तो है ही, कलात्मक ढ़ग से अभिव्यक्त होने के कारण वह संवेद्य भी हैं. इसलिये उनका काव्यात्मक महत्व बहुत अधिक है.


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