अपनी कहानी
डॉ. मंजूश्री गर्ग
अपनी कहानी शुरू होती है बुलन्दशहर से, जो बाबूजी
की कर्मभूमि है और हमारी जन्मभूमि। बुलन्दशहर उत्तर प्रदेश का एक जिला है जिसके एक
तरफ गंगा नहर बहती है और दूसरी तरफ काली नदी। बीच में पूरा शहर बसा हुआ है। आपको
पूरब की तरफ जाना है तो काली नदी पार करनी होगी और पश्चिम की तरफ जाना होगा तो
गंगा नहर। बुलन्दशहर की संस्कृति भी बूरब और पश्चिम की मिश्रित है।
बुलन्दशहर एक ऐतिहासिक नगर है, इसका प्राचीन नाम बरन
है। सन् 1857 ई. में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली पलटन मेरठ से चलकर
बुलन्दशहर ही आई थी तब इतना कत्ले-आम हुआ था कि एक तालाब का पानी खून से लाल हो
गया था। तब से उस तालाब का नाम लाल तालाब पड़ गया और जिस स्थान पर
कत्ले-आल हुआ था, उस स्थान का नाम काले-आम। अब तो खैर लाल तालाब को
पाट दिया गया है और उस स्थान पर मार्केट बन गया है।
लाल तालाब के पास ही आगा की कोठी है। पहले यहाँ
अंग्रेज शासनाधिकारी रहते थे। जब अंग्रेज भारत छोड़कर गये तो अपनी सारी जायदाद आगा
खाँ को दे गये थे। आज भी उनके परिवार के सदस्य वहाँ रहते हैं।
आगा की कोठी में ही 9 सितम्बर, 1958 को भाद्र मास, कृष्ण पक्ष
की एकादशी तिथि को मेरा जन्म हुआ था। मैं अम्मा-बाबूजी की आठवीं संतान हूँ। कहते
हैं कि आठवाँ बच्चा जीवित नहीं रहता है लेकिन ईश्वर की कृपा से मैं अपने जीवन का
साठवाँ बसन्त जी रही हूँ। हाँ समय-समय पर झटके बहुत लगे हैं लेकिन हर बार मौत से
लड़कर नया जीवन पाया है।
मेरा जन्म एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ है।
बाबाजी अंग्रेजों के समय में सिविल इंजीनियर थे और हमारा कुटुम्ब हरिसहाय वालों
के नाम से जाना जाता है। बुलन्दशहर के पास एक कस्बा है सिकन्द्राबाद,
बहाँ के रहने वाले हैं, गोयल गोत्र है। कहा जाता है कि एक समय हमारे कुटुम्ब में कोई
भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। आखिर में एक गर्भवती महिला की जब मृत्यु हुई तो
कुटुम्ब के पुरोहितों ने उसे अग्नि दी। अग्नि के ताप से एक बच्चा उछलकर बाहर आया,
उसे ही पुरोहितों ने पाला और इस तरह हमारे कुटुम्ब का नाम हरिसहाय वाले पडा।
आज ये परिवार इतना बड़ा है कि सब एकत्र हो जायें तो पूरा शहर बस जाये।
ऐसे ही मेरा ननिहाल हाथरस में कफनचोर वाले के
नाम से विख्यात है। कहते हैं कि बहुत समय पहले इस परिवार में कोई बच्चा जीवित नहीं
रहता था। किसी व्यक्ति ने सलाह दी कि अबकी बार शहर में किसी बुजुर्ग व्यक्ति की
मृत्यु हो तो उसके कफन में से थोड़ा सा कपडा चुराकर ले आना और बच्चे को पहला
वस्त्र वही पहनाना। कुटुम्ब के सदस्यों ने ऐसा ही किया और ईश्वर की कृपा से परिवार
में बच्चे जीवित रहने लगे। तभी से यह कुटुम्ब हाथरस में कफनचोर वालों के नाम से
प्रसिद्ध हो गया। ननिहाल का गोत्र बंसल है।
नानाजी घी की फर्म में बड़े मुनीम जी थे। उनकी
कैंसर के कारण अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी थी। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। हाँ! उनकी बनवायी हुई हवेली आज भी हाथरस में
दिल्लीवाले मौहल्ले में है जिसमें मेरे दोनों मामा के परिवार रहते हैं। हवेली
देखकर ही नानाजी की आर्थिक संपन्नता व सुरूचि का पता लगता है। अपना बचपन बस इन्हीं
दो जगहों पर बीता है। गर्मी की छुट्टियाँ होते ही अम्मा के साथ हाथरस चले जाते थे,
शेष दिन अपने घर ही रहते थे।
आगा खाँ को शराब और जुये का बहुत शौक था। अम्मा
के मामाजी(हमारे नानाजी) बुलन्दशहर में सरनीमल रईस के नाम से मशहूर थे उन्हें भी
शराब और जुये का बहुत शौक था। इसी शौक ने आगा खाँ और नानाजी को दोस्त बना दिया। धीरे-धीरे
इन शौकों के कारण दोनों की ही आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गयी। जहाँ नानाजी को अपनी
जायदाद बेचने को मजबूर होना पड़ा वहीं आगा खाँ को अपनी कोठी का कुछ हिस्सा किराये
पर देने पर मजबूर होना पड़ा। आगा खाँ ने कोठी का एक हिस्सा जहाँ दीवाने-आम लगता था
नानाजी को किराये पर दे दिया और जहाँ अंग्रेजों की मेमसाहब रहती थीं, वो हिस्सा
बाबूजी को किराये पर दे दिया। जहाँ अंग्रेज स्वयं रहते थे वो हिस्सा अपने पास रखा।
नानाजी से दोस्ती के कारण आगा खाँ को भी हम नानाजी ही कहते थे। दोनों में बहुत
गहरी दोस्ती थी। ईद और दीवाली के त्यौहार सब साथ मिलकर मनाते थे। आगा खाँ अपने
बच्चों की शादियों में नानाजी और हमारे लिये विशेष रूप से शाकाहारी भोजन की
व्यवस्था करवाते थे। इस तरह अपना बचपन हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली संस्कृति में
बीता। जहाँ सब आपस में मिल-जुलकर रहते थे।
लाल तालाब के पास ही मोती बाग का काफी बड़ा खुला
मैदान था जहाँ हर साल शारदीय नवरात्र में राम-लीला का आयोजन होता था और कभी-कभी
कृष्ण-लीला का भी आयोजन होता था। मोती बाग में ही अधिकांशतः नेतागण अपने भाषण देते
थे। एक तो यहाँ हेलिकॉप्टर भी आसानी से लैंड कर जाता था, दूसरे श्रोतागण भी अधिक
संख्या में एकत्र हो सकते थे। मोती बाग परिसर में ही हिन्दी साहित्य परिषद्(जिला
पुस्तकालय) है। जहाँ विविध विषयों की पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। सम-सामयिक सभी
पत्र-पत्रिकायें भी वहाँ आती हैं। मदन भैय्या को पुस्तकें पढ़नें का बहुत शौक था।
गर्मी की छुट्टियों में अक्सर हम मदन भैय्या के साथ साइकिल पर बैठकर पुस्तकालय
जाते थे। मदन भैय्या जहाँ विविध साहित्यकारों के लिखे उपन्यास पढ़ने के लिये घर
लाते थे वहीं हम विविध प्रान्तों की लोक-कथायें पढ़ने के लिये लाते थे। पुस्तकालय
में बैठकर विविध बाल पत्रिकायें भी पढ़ते थे जैसे- पराग, नंदन, आदि। पराग पत्रिका
में लम्बू-छोटू का कार्टून नियमित रूप से प्रकाशित होता था, जिसे पढ़ने में बहुत
आनंद आता था। नंदन पत्रिका में अधिकांशतः परियों की कहानियाँ होती थीं। साथ
ही बाल कवितायें भी मन को गुदगुदाती थीं। धीरे-धीरे बड़े हुये और अकेले भी
पुस्तकालय जाने लगे। हिन्दी साहित्य के विविध कवि व लेखकों की रचनायें पढ़ने का
सौभाग्य मिला। वहीं पर महादेवी वर्मा द्वारा रचित दीप-शिखा भी पढ़ने को
मिली। जिसमें उन्होंने स्वयं अपनी कुछ कविताओं पर चित्र भी बनाये हैं.
मोती बाग से थोड़ा ही आगे चलकर मलका पार्क है
जहाँ बड़ी सी मीनार पर घंटा-घड़ी लगी है। मीनार के नीचे चबूतरे पर लगभग 15-20
सीढ़ियाँ चढ़कर महारानी विक्टोरिया की मूर्ति लगी हुई थी। अस्सी के दशक में पार्क
का जीर्णोद्धार हुआ और महारानी विक्टोरिया की मूर्ति की जगह महात्मी गाँधी की
मूर्ति स्थापित हो गयी। मूर्ति के नीचे बड़ा सा एक्यूरियम बन गया जहाँ तरह-तरह की
मछलियाँ तैरती रहती थीं। पार्क में बच्चों के झूलने के लिये विभिन्न प्रकार के
झूले थे और एक कॉफी शॉप भी खुल गयी थी। जहाँ
विविध प्रकार की आइस-क्रीम, कोल्ड-ड्रिंक्स मिलती थी। पार्क की हरियाली तो देखने
लायक थी ही। गर्मियों की छुट्टियों में शाम के समय घूमने का यह एक मनोरम स्थल बन
गया। मलका पार्क की जगह इसका नाम भी राजे बाबू पार्क रख दिया गया।
राजे बाबू पार्क में ही सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में पानी की टंकी का निर्माण हुआ, उससे पहले
बुलन्दशहर में नगर निगम द्वारा पानी की सप्लाई नहीं होती थी। प्रायः सभी घरों में
कुआँ या हैंड़ पंप हुआ करते थे। आगा की कोठी में भी कुआँ और हैंड़ पंप दोनों थे।
राजे बाबू पार्क के सामने की तरफ जगदीश टॉकीज है। पहले
बुलन्दशहर में दो ही पिक्चर हॉल थे। एक जगदीश टॉकीज और दूसरा बस अड्डे के
पास न्यूरीगल। अस्सी के दशक में तीन पिक्चर हॉल और बने- अल्पना, अम्बर और
विशाल। पिक्चर रीलीज होते ही एक-दो सप्ताह के अन्दर बुलन्दशहर के सिनेमाघरों
में पिक्चर लग जाती थी। घर में कोई मेहमान आये तो उनके मनोरंजन के लिये बुलन्दशहर
में यही पिक्चर हॉल एकमात्र साधन थे। बाबूजी हम बच्चों को कभी भी अकेले पिक्चर
देखने की अनुमति नहीं देते थे, लेकिन जब भी कोई अच्छी पिक्चर लगती थी तो अम्मा-बाबूजी
अपने साथ ले जाकर अवश्य पिक्चर दिखाते थे।
जगदीश टॉकीज से आगे मेरठ रोड और दिल्ली रोड शुरू हो जाती है।
आगा की कोठी से बायें हाथ पर चलने पर गढ़ रोड और अनूपशहर रोड शुरू हो जाती है। आगा
की कोठी से थोड़ा आगे चलने पर साइकिल मार्केट है, वहीं पास में छोटा पॉस्ट ऑफिस
है। पॉस्ट ऑफिस से बायें हाथ पर चलने पर शहर का मेन मार्केट चौक बाजार आता
है, जहाँ कपड़े और सर्राफे की बडी-बड़ी दुकानें हैं। अभी अंसारी रोड़ का मार्केट
भी काफी विकसित हो गया है लेकिन सत्तर के दशक तक वहाँ कोई दुकान नहीं थी।
सत्तर के दशक में पोस्ट-ऑफिस की बहुत अहम् भूमिका
थी क्योंकि उस समय दूर बैठे सगे-संबंधियों की कुशल-क्षेम पूछने या अपना हालचाल
बताने का मुख्य साधन पत्र व्यवहार ही था। पोस्टकार्ड, लिफाफे, अन्तर्देशीय पत्र,
डाक टिकट सब पोस्ट-ऑफिस से ही मिलते थे और लिखित पत्र यहीं पोस्ट करने होते थे। दूर
बैठे हुये व्यक्ति को धन मनीऑर्डर द्वारा भेजा जाता था जो पोस्ट ऑफिस के माध्यम से
ही होता था। यहाँ तक की उस समय रेडियो रखने पर भी लाइसेंस लेना होता था जिसका बिल
पोस्ट ऑफिस में ही जमा होता था। टेलीग्राम भी टेलीप्रिंटर के माध्यम से पोस्ट ऑफिस
के द्वारा भेजे जाते थे। किसी व्यक्ति को खुशी या गम का संदेश तुरंत देना होता था तो
टेलीग्राम के माध्यम से ही दिया जाता था। इक्कीसवीं सदी में इंटरनेट के प्रचार-प्रसार
के कारण पलक झपकते ही हम विश्व में कहीं भी, किसी को भी अपना संदेश पहुँचा सकते हैं।
एसे समय में टेलीग्राम की कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसीलिये सरकार ने टेलीग्राम की
सेवा अब बंद कर दी है।
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