पुरूरवा की कलम से
देवलोक की परी हो तुम
जानता हूँ, इसी से
चाहकर भी कभी
पाने की कोशिश नहीं की।
मुस्कानों के फूल
खिलाता रहा
और गंध की स्याही में
डुबो-डुबो कर लिखता रहा।
भेजता रहा संदेशे
पवन के हाथ।
गंध तुम्हें पसन्द थी
आखिर तुम बेचैन हो गयीं
पाने को उसी गंध को।
प्यार मेरा सच्चा था
इसी से मजबूर हो गयीं
आने को भूलोक पर।
उर्वशी! सच कहूँ
तुम्हे पाकर
जीवन मेरा
सार्थक हुआ है
बरसों की तपस्या का फल
आज मुझे मिला है।
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