जायसी की दूसरी अमर कृति कन्हावत
डॉ0 शिव सहाय पाठक ने अपने अथक परिश्रम से
मलिक मोहम्मद जायसी की एक अमर कृति कन्हावत की खोज कर ली है. कन्हावत के
प्रारम्भ में जायसी ने अपने अन्य काव्यों की भाँति ईश्वर स्तुति की है-
सम सरग और धरती साजा,
जग उपजै औ जाइ हिराता,
ताकर अस्तुति कीन्ह न जाइ,
कौनहि अस करौं बड़ाई.
पश्चात् कवि ने चारों
मित्रों का उल्लेख किया है. शाहे तख्त के रूप में हुमायूँ की प्रशंसा की
है. जायसी ने वेदव्यास का भी स्मरण किया है, श्रीमद् भागवत के विषय में अत्यन्त
उल्लसित भाव से लिखा है-
प्रनवौं वेदव्यास के चरनां,
जिन्ह हरि चरित सविस्तर
बरनां,
हरि अनंत हर् कथा अनंता,
गावहिं वेद भागवत, संता,
सुनउं, पढ़ेउ, भागवत
पुराना,
पाएउं प्रेम पंथ संधाना,
अइसन प्रेम कहानी दूसर जग
महं नाहिं।
तुरूकी, अरबी, फारसी- सब
देखेउं अवगाहि।
मथुरा, मथुरा का चौदह
खंड़ोंवाला कोट, खाई, कंस, वसुदेव, देवकी, कृष्ण जन्म, कृष्ण की बाल्यावस्था,
विविध कृष्ण लीलाएं, कंस वध, गोपी, राधा, संयोग, वियोग, आदि सूत्रों को दृष्टिपथ
में रखते हुये कवि ने कृष्ण जन्म से लेकर उनकी मृत्यु तक की कथा का बड़ा रसमय
आख्यान किया है. पद्मावत की ही भाँति इस काव्य में पद-पद पर काव्य सौन्दर्य भरा
हुआ है- रसमय स्थलों की तो इसमें भरमार है.
श्रेष्ठ विरह वर्णन-
रास-लीला वाला प्रसंग यहाँ
विशेष रूप से उल्लेखनीय है. कवि ने लिखा है कन्ह-प्रिया( राधा) ने अपनी आँखों की
ओर से कान्ह को इंगित किया और वे विद्युत गति से नृत्यमान हो गये, वे ऐसी गति से
नाच रहे थे कि सोलह सहस्र गोपियों को अनुभव हो रहा था, मानों कान्ह प्रत्येक के
साथ नाच रहे हैं-
विजुरी की गति नाचै कान्हा.
कवि ने संपूर्ण सृष्टि को
रास-नृत्य में नर्तित-रूप में देखा है-
नाचै धरती गगन वरहम्हंडा,
सात अकास-पतार अखंडा,
चांद रहा थिर, नाचहिं तारा.
सुधि-बुधि भुलि नचै संसारा,
नाचै अगिन, पवन, जल, खेहा,
बिजुरी राहि, कान्ह जनु
मेहा,
X x x x x
जह महं रास कान्ह कै होई,
बिनु अनुगरह जान नहिं कोई.
राधा और गोपियों का विरह
वर्णन कन्हावत के श्रेष्ठ स्थलों में से एक है. संपूर्ण सृष्टि कृष्ण के
विरह में व्याकुल है. यह वियोग वर्णन नागमती के बारहमासे से किसी भी रूप में कम
नहीं है.
कृष्ण और राधा के रूप
सौंदर्य वर्णन वाले प्रसंग पद्मावती के नख-शिख की याद दिला देते हैं. यहाँ
राधा वह महाचिति या कृष्ण की पराशक्ति है, जो सृष्टि के मूल में है.
आकार में कन्हावत लगभग
पद्मावत के समान ही वृहद प्रबंध काव्य है. दोहा-चौपाई छंदों में कवि ने इसे
लिखा है, इसमें कुल आठ सोरठा छंद भी मिलते हैं.
कन्हावत पद्मावत की ही भाँति हिन्दी का एक
श्रेष्ठ महाकाव्य है.
सौजन्य- साप्ताहिक पत्रिका: धर्मयुग-अंक 30 मार्च से 5
अप्रैल 1978
---------
No comments:
Post a Comment