प्रस्तुत पंक्तियों में कवि
ने पति-पत्नी के प्रथम मिलन का बहुत ही मनोहारी वर्णन किया है- पत्नी प्रथम
संकोचवश ना-ना करती है लेकिन धीरे-धीरे पति की बाँहों में अपने को समर्पित कर देती
है-
धारी जब बाँही तब करी तुम ‘नाहीं’,
पायँ दियौ पलिकाही, ‘नाहीं नाहीं’ कै सुहाई हौ।
बोलत मैं नाहीं, पट खोलत मैं नाहीं, कवि
दूलह उछाही लाख भाँतिन लहाई हौ
चुंबन में नाहीं परिरंभन में नाहीं, सब
आसन विलासन में नाहीं ठीक ठाई हौ।।
मेलि गलबाहीं, केलि कीन्हों चितचाहीं, यह
‘हाँ’ ते भली ‘नाहीं’ सो कहाँ न सीखि आई हौ।
दूलह
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