आधुनिक हिन्दी कविता का
इतिहास
(सन् 1850 ई. से अब तक)
डॉ. मंजूश्री गर्ग
आधुनिक काल के आरंभ के समय तक हिन्दी कविता के लिये ब्रजभाषा ही उपयुक्त मानी
जाती रही, क्योंकि हिन्दी खड़ी बोली को हिन्दी साहित्य की भाषा के रूप में
प्रतिष्ठापित करने वाले कवि व लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी भी हिन्दी कविता के
लिये ब्रजभाषा के पक्षधर रहे. किन्तु आधुनिक काल में कुछ समय पश्चात् ही हिन्दी
खड़ी बोली हिन्दी कविता का माध्यम बनी. सांस्कृतिक नव जागरण और राष्ट्रीय चेतना ने
आधुनिक हिन्दी कविता को जन्म दिया. इस धारा में अतीत के गौरव की सुगंध और
राष्ट्रीय भावना उद्वेलन राष्ट्रीय पुनर्जागरण की कविताओं में सिद्ध हुआ.
मैथिलीशरण गुप्त के काव्य भारत-भारती(काव्य-संग्रह) ने हमारे राष्ट्रीय
स्वाधीनता आंदोलनकारियों के मन में जोश भरा और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को
गौरवशाली प्रेरणा प्रदान की. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कठोर अनुशासन में
हिन्दी खड़ी बोली का परिमार्जन हुआ. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, माखनलाल
चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर,
सोहनलाल द्विवेदी, आदि कवियों ने इस धारा से जुड़कर देशप्रेम की भावनाओं को सशक्त
अभिव्यक्ति दी और अपने प्राचीन सांस्कृतिक गौरव की ओर देशवासियों का ध्यान आकर्षित
किया.
18 फरवरी, 1922 में
स्वतंत्रता आंदोलन के समय बिलासपुर जेल में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने देशप्रेम के
विलक्षण अनुराग से प्रेरित पुष्प की अभिलाषा कविता की रचना की-
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूथाँ जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक।
सन् 1920 ई. के आस-पास छायावाद
काव्यधारा का उदय हुआ. इस भावधारा का आरंभ मुकुटधर पांडेय की कविता कुररी के
प्रति से माना जाता है जो सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई. छायावाद
के प्रथम सशक्त हस्ताक्षर रहे श्रीधर पाठक. श्रीधर पाठक द्वारा रचित एकांतवास
योगी खड़ी बोली का प्रथम खण्ड काव्य है. आधुनिक काल में यह समय स्वच्छंतावादी
कविता का माना जाता है. स्वच्छंतावादी कविता में प्रकृति चित्रण के अतिरिक्त समाज
सुधार और देशप्रेम की भावनाओं की भी अभिव्यक्ति हुई है. इस काल के कवियों ने
रूढ़िगत काव्य विषय और उपमानों को छोड़ दिया. काव्य भाषा में लाक्षणिक प्रयोगों की
प्रधानता व कविता में प्रतीकात्मक तत्वों की प्रधानता बढ़ने लगी. व्यैक्तिकता,
जिज्ञासा, प्रकृति का मानवीकरण, नारी का विविध रूपों में चित्रण छायावादी कविता की
प्रमुख विशेषतायें हैं. छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा,
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है.
प्रसाद जी रचित कामायनी(महाकाव्य) छायावाद की अनुपम रचना है. निराला जी की
रचना राम की शक्तिपूजा एक अच्ची प्रबंधात्मक रचना है. प्रकृति के प्रति
नवीन दृष्टिकोण जिज्ञासा व रहस्य के कारण छायावाद के साथ रहस्यवाद का नाम
भी जुड़ा. प्रसाद जी, पंत जी, महादेवी वर्मा का नाम रहस्यवाद से विशेष रूप से जुड़ा
है.
सन् 1936 ई. के आस-पास
कविता में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण से मुक्ति का स्वर विशेष रूप अभिव्यक्त
होने लगा. इस नवीन भावधारा को प्रगतिवाद के नाम से जाना जाता है. प्रारंभ
में पंत जी व निराला जी ने प्रगतिवादी कविता को स्वर दिया. हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र
शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, शिवमंगल सिंह
सुमन ने प्रगतिधर्मी रचनायें रचीं. इसी कड़ी को आगे गोपालदास नीरज, रामावतार
त्यागी, रामानंद दोषी, रमानाथ अवस्थी, वीरेन्द्र मिश्र, गजानन माधव मुक्तिबोध,
केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, आदि कवियों ने आगे बढ़ाया. सन् 1936 ई. में हरिवंशराय
बच्चन की मधुशाला प्रकाशित हुई, कुछ समय तक हालावाद काव्यधारा का भी
जोर रहा.
सन् 1943 ई. में सच्चिदानंद
हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने तार सप्तक नाम से एक कविता संग्रह संपादित किया,
इसमें सात कवियों(गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण
अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, अज्ञेय) की रचनायें हैं. इन रचनाओं
में भाव, विचार, प्रक्रिया, छंद, प्रतीक, अलंकार, आदि सभी धरातल पर नये-नये प्रयोग
किये गये हैं. इसीलिये इस युग को प्रयोगवाद नाम दिया गया. उपर्युक्त कवियों
के अतिरिक्त प्रयोगवादी कवियों में शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय, धर्मवीर
भारती, नरेश मेहता, आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं. इन कवियों की रचनाओं में बौध्दिक
चिंतन की प्रधानता है. यह कविता व्यक्तिवाद, कलावाद के कारण चर्चा में रहीं.
मध्यवर्गीय व्यक्तियों की मानसिक कुंठाओं और अपने अंतर्मुखी होने के कारण अधिकांश
कवितायें साधारण पाठक की समझ में नहीं आती थीं.
सन् 1947 ई. के बाद
प्रयोगवाद का विकास नयी कविता के नाम से जाना जाता है. नया वातावरण और नयी
जीवन लहर ने आत्मान्वेषण की प्रेरणा दी. कविता में ईमानदारी और अनुभूति की
प्रमाणिकता का आग्रह मान्य हुआ. कविताओं में बिम्ब और प्रतीकों का कुशलतापूर्वक
शिल्पन होने लगा. इस समय के प्रमुख कवि हैं- धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह,
कुँवर नारायण, नरेश मेहता, केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वरदयाल सक्सैना, श्रीकांत वर्मा,
आदि.
प्रयोगवादी कविता के बाद
कविता में दो प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से देखने को मिलती हैं-एक जनोन्मुखी कविता
और दूसरी व्यक्तिवादी कविता. जनोन्मुखी धारा के कवियों में सुदामा पाण्डेय
धूमिल और व्यक्तिवादी या अंर्तमुखी धारा के कवियों में श्रीकांत वर्मा का नाम
विशेष रूप से उल्लेखनीय है. गजानन माधव मुक्तिबोध ने जनोन्मुखी और व्यक्तिवादी
दोनों धारणाओं से जुड़ी कविताओं की रचना की. इसी बीच कविताओं का एक वर्ग वह भी आया
जो कविता के परंपरित रूपों को पूरी तरह अस्वीकार करने के कारण अकविता नाम
से विख्यात हुआ.
अकविता के बाद समकालीन
कविता एक नया नाम आया. इस समय हिंदी कविता के क्षेत्र में जिन विशिष्ट कवियों
ने योगदान दिया है उनमें भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, धूमिल, रघुवीर सहाय,
त्रिलोचन शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता,
सर्वेश्वरदयाल सक्सैना, दुष्यंत कुमार, ज्ञानेंद्र पति, राजेश जोशी, लीलाधर
जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, सोमदत्त, आदि विशेष उल्लेखनीय हैं. अनुभवों की खोजपरक
साधना हिन्दी कविता के उज्जवल भविष्य का संकेत देती है.
नयी कविता, अकविता की
रसहीनता , अति बौद्धिकता, दुरूहता के कारण नवगीत का जन्म हुआ जो भाव प्रवण
होने के साथ-साथ सरस भी थे और समकालीन मनोभावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम भी
थे. नवगीत के रचनाकारों में डॉ. कुअँर बेचैन, गोपालदास नीरज, रामावतार त्यागी के
नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.
सन् 1975 में देश में
आपातकाल लागू होने पर प्रेस पर पाबंदी ही लग गई. इस समय साहित्यकारों व कवियों को
ऐसी विधा की आवश्यकता महसूस हुई जो संक्षेप में व्यंग्यात्मक ढ़ंग से अपनी बात आम
आदमी तक पहुँचा सके. इसीलिये अस्सी और नब्बे के दशक में गजल विधा का विकास
तीव्रगति से हुआ. हिन्दी गजलों में समसामयिक, राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपता का
चित्रण बहुत ही सहज और व्यंगयात्मक ढ़ंग से हुआ. हिन्दी गजलकारों में डॉ. कुअँर
बेचैन, गोपालदास नीरज, रामावतार त्यागी, सूर्यभानु गुप्त,शिवओम अम्बर, गिरिराजशरण
अग्रवाल, पुरूषोत्तम प्रतीक, जहीर कुरैशी, चन्द्रसेन विराट, ज्ञानप्रकाश विवेक,
अदम गोंडवी, आदि कवियों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.
गजल विधा के समानांतर
अधिकांशतः भक्तिकाल व रीतिकाल में कहे जाने वाली विधा दोहा कहने की परम्परा
भी हिन्दी काव्य साहित्य में पुऩः विकसित हो रही है. गजल व दोहा के साथ ही
इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ से हिन्दी में जापानी विधा हाइकु में भी काव्य
रचना हो रही है. हाइकु विधा गजल और दोहे के समान संक्षिप्त है. यह वर्णात्मक छंद
है. इस प्रकार हिंदी कविता निरंतर विकास की ओर अग्रसर है.
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