प्रगतिवाद
डॉ. मंजूश्री गर्ग
प्रगति का अर्थ ही है आगे बढ़ना. हर युग पिछले युग के
समर्थन और विरोध के साथ ही नये युग का प्रारम्भ करता है. जो विचारधारा राजनीति मे
साम्यवाद है, दर्शन में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है वही साहित्य में प्रगतिवाद है.
द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, उपदेशात्मकता और स्थूलता
के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप छायावाद का जन्म हुआ और छायावाद की सूक्ष्मता,
कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की प्रतिक्रिया में एक नयी साहित्यिक
काव्य-धारा का जन्म हुआ. यह काव्यधारा प्रगतिवाद के नाम से विख्यात हुई.
इसका आधार जीवन का यथार्थ और वस्तुवादी दृष्टिकोण रहा.
प्राचीन से नवीन की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, पूँजीवाद से
समाजवाद की ओर, रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर, उच्च वर्ग से निम्न वर्ग की ओर,
शांति से क्रांति की ओर बढ़ना. इन विशेषताओं ने जब एक
आंदोलन के रूप में साहित्य में प्रवेश किया तो कविता ही नहीं साहित्य की अन्य
विधाओं(कहानी, उपन्यास, नाटक) में भी प्रवेश किया और प्रगतिवाद एक आंदोलन
के रूप में साहित्य में उभरा.
सर्वप्रथम यूरोप में प्रगतिशील मंच की स्थापना हुई और लंदन
में ही भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई. यूरोप में बसे भारतीय युवकों के
मन में यह विचार आया कि जब तक भारतीय अपने अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता की जड़ता से
नहीं उबरेंगे तब तक पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त नहीं हो सकते. अतः भारतीय लेखक
वर्ग का कर्तव्य है कि भारतीय समाज को संकीर्ण मनोविचार से उबार कर प्रगति पथ पर
आरूढ़ करें. भारत में सन् 1936 ई. में लखनऊ में मुंशी प्रेमचंद की अध्यक्षता में
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई. हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद की धारा न केवल हिन्दी काव्य
में बही वरन् कथा साहित्य में भी प्रचुर मात्रा में बही.
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ सुमित्रानन्दन पंत और सूर्यकान्त
त्रिपाठी ने भी प्रगतिवादी काव्य को समर्थ और सक्षम बनाने में अपना सहयोग दिया.
बालकृष्ण शर्मा नवीन, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर,
आदि राष्ट्रीय व सांस्कृतिक धारा के कवियों नें भी प्रगतिवाद से सम्बन्धित कविताओं
की रचना की. रामेश्वर शुक्ल अंचल, भारत भूषण अग्रवाल, शिवमंगल सिंह सुमन,आदि
कवियों ने श्रृंगारिक कविताओं के साथ-साथ प्रगति-चेतना पर आधारित कवितायें लिखीं.
साम्यवादी विचारधारा से प्रेरित कवियों- केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, रामविलास
शर्मा, गजाननमाधव मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, आदि ने प्रारम्भ से ही प्रगतिवादी कविताओं की रचना की और हिन्दी
काव्य को नयी दिशा दी.
कथा साहित्य में कहानी, उपन्यास, नाटक, आदि सभी विधाओं में
प्रगतिवाद के रंग देखने को मिलने लगे. प्रेमचन्दोत्तर युग में मार्क्सवाद के
प्रभाव से कहानीकार कहानियों में समाज में व्याप्त जीवन्त समस्याओं को अभिव्यक्त
करने लगे. आधुनिक कथाकार अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये बिम्ब और
प्रतीकों का भी प्रयोग करने लगे. प्रगतिवादी युग के प्रमुख कहानीकार हैं- मोहन
राकेश, कमलेश्वर, अमृतराय, फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, शैलेश
मटियानी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, श्रीकांत वर्मा, शेखर जोशी, आदि.
मार्क्सवादी(प्रगतिवाद) विचारधारा से प्रभावित होकर समाज के
माध्यमवर्गीय जीवन से प्रभावित होकर उपन्यास लिखे जाने लगे. मनोविश्लेषणात्मक
उपन्यास भी लिखे गये. आंचलिक विषयों को भी उपन्यासों का विषय बनाया गया. इस समय के
प्रमुख उपन्यासकार हैं- नागार्जुन, धर्मवीर भारती, श्रीलाल शुक्ल, फणीश्वरनाथ
रेणु, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उदयशंकर भट्ट,
शिवप्रसाद सिंह, आदि.
नाटककार भी प्रगतिवाद के प्रभाव स्वरूप अपने आस-पास की
समस्याओं और चुनौतियों को नये-नये प्रयोगों के माध्यम से नाटकों में अभिव्यक्त
करने लगे. एब्सर्ड(विसंगत) नाटक भी लिखे जाने लगे. इस समय के प्रमुख नाटककार हैं-
उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, जगदीशचन्द्र माथुर, बिष्णु प्रभाकर, सुरेन्द्र
वर्मा, आदि.
इस प्रकार प्रगतिवाद ने हिन्दी साहित्य की सभी
विधाओं(कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक) को प्रभावित किया और मार्क्सवादी विचारधारा
के साथ-साथ समाज में जन जागरूकता का कार्य भी किया.
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