जब क्रौंच-वध से वाल्मीकि जी के ह्रदय में गहन
दुःख की अनुभूति हुई थी जिसके परिणाम स्वरूप साहित्य का प्रथम छंद* सहसा ही वाल्मीकि जी के मुख से निकला था उसी का वर्णन कवि
ने प्रस्तुत पंक्तियों में किया है-
वस्तुतः छन्द यह आदि छन्द
लौकिक छन्दों में प्रथम
श्लोक।
अब तक न हुई रचना ऐसी
परिचित इससे क्या नहीं लोक।
वैदिक छन्दों में ही अब तक
अभिव्यक्त भावना होती थी
उन चिर-परिचित नीड़ों में
ही
कल्पना थकी-सी सोती थी।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
*मा निषाद
प्रतिष्ठां त्वमगम शाश्वती समा।
यत्क्रौंच मिथुनादेकम् अवधी काममोहितम्।।
No comments:
Post a Comment