प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बसंत ऋतु का वर्णन किया है-
देखते हैं जिधर ही उधर ही
रसाल पुंज
मंजू मंजरी से मढ़े फूले न
समाते हैं।
कहीं अरूणाभ, कहीं पीत
पुष्प राग प्रभा,
उमड़ रही है, मन मग्न हुये
जाते हैं।
कोयल उसी में कहीं छिपी कूक
उठी, जहाँ-
नीचे बाल वृन्द उसी बोल से
चिढ़ाते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
No comments:
Post a Comment