कैसे ना होता प्यार हमें तुमसे,
न जाने कब से तुम्हारी चाहतों में शामिल थे हम।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
गीत
डॉ. मंजूश्री गर्ग
कोयल की सुन तान
तुम्हारे गीत रचे।
सतरंगी सपनें सी
कोई चाह जगी
अँधियारे पथ में
ज्योतिर्मय राह जगी।
पाँव महावर से फिर
मैंने मीत...रचे।
कोयल की सुन तान
तुम्हारे गीत रचे।
मन की डोर बँधी
सारे संयम टूटे
तुझसे बँधे तो
सब रिश्ते-नाते छूटे
तुझसे हारूँ, तो भी
मेरी जीत रचे।
कोयल की सुन तान
तुम्हारे गीत रचे।
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शंख
शंख की उत्पत्ति देवासुरों द्वारा किये गये समुद्रमंथन के समय चौदह रत्नों में
से एक रत्न के रूप में भी हुई. पांचजन्य नामक शंख
समुद्मंथन के समय प्राप्त हुआ, जो अद्भुत स्वर, रूप व गुणों से सम्पन्न था. इसे भगवान विष्णु जी ने एक आयुध के रूप में स्वयं धारण किया. अधिकांश देवी-देवता शंख को आयुध के रूप में धारण करते हैं.
शंख समुद्र की घोंघा जाति का प्राणिज द्रव्य है. यह दो प्रकार का होता है-दक्षिणावर्ती और उत्तरावर्त्ती. दक्षिणावर्त्ती का मुँह दक्षिण की ओर खुला रहता है और यह
बजाने के काम नहीं आता है. यह अशुभ माना जाता है, जिस घर में यह होता है वहाँ लक्ष्मी का निवास नहीं होता है. इसका प्रयोग अर्ध्य देने के लिये किया जाता है. उत्तरावर्त्ती शंख का मुँह उत्तर दिशा की ओर खुला रहता है. इसको बजाने के लिये छिद्र होते हैं. इसकी ध्वनि से रोग उत्पन्न करने वाले किटाणु मर जाते हैं या
कमजोर पड़ जाते हैं. उत्तरावर्त्ती शंख घर में रखने से
लक्ष्मी का निवास होता है.
अर्थववेद के अनुसार शंख ध्वनि व शंख जल के प्रभाव से बाधा, आदि अशान्तिकारक तत्वों का पलायन हो जाता है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीस चन्द्र वसु ने अपने यंत्रों के
द्वारा यह खोज की थी कि एक बार शंख फूँकने पर उसकी ध्वनि जहाँ तक जाती है वहाँ तक
अनेक बीमारियों के कीटाणुओं के दिल दहल जाते हैं और ध्वनि स्पंदन से वे मूर्छित हो
जाते हैं. यदि निरन्तर प्रतिदिन यह क्रिया की जाये
तो वहाँ का वायुमण्डल हमेशा के लिये ऐसे कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है.
रूद्राक्ष
डॉ. मंजूश्री गर्ग
रूद्र(शिवजी)-अक्ष के अश्रु-बिन्दु से उत्पन्न होने के कारण इसका नाम रूद्राक्ष पड़ा. कहा जाता है कि देवों के विजयोल्लास में शिवजी भी हँसने लगे और उनकी आँखों से चार आँसू की बूँदें टपक पड़ी. इन्हीं से रूद्राक्ष वृक्ष की उत्पत्ति हुई, जिस क्षेत्र में रूद्राक्ष वृक्ष की उत्पत्ति हुई उसे ‘रूद्राक्षारण्य’ कहा जाता है. यह स्थान नेपाल में पंचकोशी क्षेत्र के अन्तर्गत जनकपुर धाम से दक्षिण और जयनगर से उत्तर(जहाँ जलेश्वर महादेव हैं) में स्थित है. इसके अतिरिक्त भारत के दार्जिलिंग, कोंकण, मैसूर और केरल क्षेत्रों में तथा इंडोनेशिया एवमं जावा में भी रूद्राक्ष के वृक्ष पाये जाते हैं. चने के बराबर रूद्राक्ष निम्न कोटि का होता है. आँवले के आकार का रूद्राक्ष समस्त अरिष्टों का नाश करता है. बेर के बराबर रूद्राक्ष लोक में उत्तम सुख-सौभाग्य एवम् समृद्धि देने वाला होता है. जिस रूद्राक्ष में डोरा पिरोने के लिये छेद अपने आप बना होता है वह उत्तम रूद्राक्ष होता है और जिस रूद्राक्ष में मनुष्य छेद करते हैं वह मध्यम श्रेणी का होता है. रूद्राक्ष के ऊपर एक गहरी रेखा बनी होती है इसे मुख कहते हैं. रूद्राक्ष एक मुखी से लेकर चौदह मुखी तक होते हैं. असली रूद्राक्ष की पहचान करनी हो तो है उसे दो ताँबे के तारो के बीच रख कर देखना चाहिये. रूद्राक्ष ताँबे के तारों के बीच फिरकनी की तरह नाचने लगता है. दूसरे असली रूद्राक्ष दूध या पानी में डूबता नहीं है.
फलों का राजा-आम
डॉ. मंजूश्री गर्ग
आम भारत का राष्ट्रीय फल है
और इसे फलों का राजा कहा जाता है। भारत में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक व आसाम
से लेकर पंजाब तक सभी जगह पाया जाता है। आम को आम्र, रसाल, सहकार, आदि अनेक नामों
से जाना जाता है। कोई नाम स्थान विशेष पर उत्पन्न होने के कारण पड़ गया जैसे-
मलीहाबाद, बॉम्बेग्रीन, बैंगनपल्ली; तो कोई नाम आम
के रंग के आधार पर जैसे- केसर, तोतापरी, सफेदा, आदि। सभी आमों की अपनी-अपनी
विशेषतायें हैं फिर भी उत्तर भारत का दशहरी व बॉम्बे का अल्फांजों बहुत प्रसिद्ध
हैं। आम का फल स्वादिष्ट, मीठा व गुणकारी होता है। साथ ही इसका प्रयोग हम किसी न
किसी रूप में सालभर करते हैं। वनस्पति वैज्ञानिक वर्गीकरण के आधार पर आम
ऐनाकार्डियेसी कुल का वृक्ष है।
आम का पेड़ 30 फुट से 90
फुट तक ऊँचा होता है और फैला हुआ होता है। आम की पत्तियाँ वर्ष भर नयी निकलती रहती
हैं, इनकी लंबाई 8 इंच से 10 इंच तक होती है और चौड़ाई 1.5 इंच से 2 इंच। पत्तियाँ
का अग्र भाग नुकीला सा होता है। कुछ पत्तियाँ किनारे से लहरदार होती हैं। शुभ
अवसरों पर घर के मुख्य द्वार पर पत्तियों के तोरण बनाकर सजाते हैं व कलश में भी
डंडी सहित आम की पत्तियों का रखा जाता है। आम की पत्तियों की विशेषता है कि इनसे
बराबर ऑक्सीजन निकलती रहती है जिस कारण हवन के समय कक्ष में ऑक्सीजन की कमी नहीं
होती है। आम का तना भूरे या काले रंग का खुरदुरा होता है। अधिकांशतः हवन में आम की
लकड़ियों का ही प्रयोग होता है।
बसंत के मौसम में आम पर बौर
आना शुरू होता है। आम्रमंजरी को कामदेव के पंचवाणों में भी स्थान प्राप्त है। इसकी
भीनी गंध आस-पास के समस्त वातावरण को गंधमय बना देती है। इसकी गंध से आकर्षित हो
कोयल भी मधुर राग में कुहुकना शुरू कर देती है। आम के फूल छोटे, हल्के बसंती रंग
के या लालिमा लिये हुये होते हैं। नर और उभयलिंगी फूल एक ही बार(पैनिकल) पर होते
हैं. आम का फल सरस, गूदेदार होता है और हर फल में एक ही गुठली(बीज) होती है।
कच्चे आम का पन्ना बनाया
जाता है जो स्वादिष्ट व गर्मी में लू लगने से बचाता है। कच्चे आम को सुखाकर, पीसकर
अमचूर बनता है जिसका प्रयोग हम सालभर दाल और सब्जी में मसाले के रूप में करते हैं।
कच्चे आम से ही विभिन्न प्रकार के खट्टे-मीठे अचार बनाये जाते हैं। पके आम खाने
में सभी को प्रिय होते हैं चाहे कोई बच्चा हो या वृद्ध। पका आम बहुत ही
स्वस्थ्यवर्धक, पोषक, शक्तिवर्धक होता है। आम में विटामिन ए और विटामिन सी
प्रचुर मात्रा में होते हैं।
जामुन प्रायः जामुन, राजमन,
काला जामुन, जमाली, ब्लैकबैरी, आदि नामों से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम
सिजगियम क्यूमिनी(syzgium cumini) है। जामुन का
फल बहुत ही स्वादिष्ट, मीठा व स्वास्थयवर्धक होता है। इसकी प्रकृति अम्लीय व कसैली
होती है, इसीलिये इसे नमक के साथ खाया जाता है। इसमें ग्लूकोज और फ्रक्टोज दो
मुख्य स्रोत होते हैं। फलों में खनिजों की मात्रा अधिक होती है।
जामुन का पेड़ लगभग 15 मी.
से 20 मी. ऊँचा होता है। ऊँचाई के अनुपात में तने का व्यास कम ही होता है लेकिन
तना मजबूत होता है। आँधियों में भी जामुन का पेड़ आसानी से गिरता नहीं है. जामुन
के पेड़ की लकड़ी पानी में सड़ती भी नहीं है। जामुन की पत्तियाँ 5-6 इंच लंबी व
1.5-2 इंच चौड़ी होती हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह बहुत ही चमकीली स्निग्ध होती है। जामुन
की पत्तियों की विशेषता है कि ये वृंत पर प्रायः य़ुग्म रूप में निकलती हैं जो
देखने में बहुत ही सुन्दर लगती हैं। जामुन की पत्तियाँ भी आम की पत्तियों की तरह
वर्षभर हरी-भरी रहती हैं।
जामुन के पेड़ पर अप्रैल-मई
के महीने में बौर आना शुरू हो जाता है और जून-जुलाई के महीने में फल आते हैं। फल
जामुनी रंग के 1-1.5 इंच लंबे व लगभग .5-1 इंच व्यास के होते हैं। वर्षा अधिक होने
पर जामुन के फल का उत्पादन भी अधिक होता है। जामुन का फल गुच्छे के रूप में लगता
है और अधिक पकने पर जमीन पर गिरने लगते हैं। फल वर्ष में लगभग दो महीने ही आता है
लेकिन इसका लाभ हम पूरे वर्ष उठा सकते हैं। जामुन के फल की गुठली भी बहुत गुणकारी
होती है। इसे सुखाकर, पीसकर इसका प्रयोग हम सालभर कर सकते हैं।
जामुन में आयरन, विटामिन
बी, कैरोटिन, मैग्नीशियम और फाइबर होते हैं। मधुमेह(डायबिटिज) के रोगियों के लिये
तो यह फल बहुत ही लाभकारी है।
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अर्जुन वृक्ष भारत में पाये
जाने वाला औषधीय वृक्ष है। औषधि के रूप में अर्जुन वृक्ष का प्रयोग होता है, जिसका
रस ह्रदय रोग में बहुत ही लाभकारी है। आयुर्वेद ही नहीं होम्योपैथी में भी इसकी
महत्ता स्वीकार की गयी है और आधुनिक विद्वान भी वर्षों से अर्जुन की छाल पर शोधकार्य
कर रहे हैं और धीरे-धीरे इसकी महत्ता स्वीकार कर रहे हैं।
अर्जुन के वृक्ष को धवल,
ककुभ तथा नदीसर्ज(नदी नालों के किनारे होने के कारण) भी कहते हैं। यह 60 फीट से 80
फीट ऊँचा सदाबहार पेड़ है जो हिमालय की तराई के इलाकों में, शुष्क पहाड़ी
क्षेत्रों में नाले के किनारे तथा बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान में बहुतायत से पाये
जाते हैं। यह एक सदाबहार पेड़ है। अर्जुन वृक्ष की छाल का ही प्रयोग किया जाता है
लेकिन अर्जुन के पेड़ की कम से कम पन्द्रह प्रजाति पाई जाती हैं। इसलिये यह जानना
अति आवश्यक है कि किस पेड़ की छाल का दवाई के रूप में प्रयोग करना चाहिये। सही
अर्जुन की छाल अन्य पेड़ों की तुलना में कहीं अधिक मोटी व नरम होती है। शाखा रहित
यह छाल अंदर से रक्त-सा रंग लिये होती हैं। पेड़ पर से छाल चिकनी चादर के रूप में
उतर आती है। वर्ष में लगभग तीन बार पेड़ स्वतः छाल गिरा देता है।
अर्जुन का वृक्ष लगभग दो
वर्षा ऋतुओं में विकास कर लेता है। इसके पत्ते 7 से.मी. से 20 से. मी. आयताकार
होते हैं। कहीं-कहीं नुकीले होते हैं। बसंत के मौसम में नये पत्ते आते हैं और
छोटी-छोटी टहनियों पर लगे होते हैं। पत्तों का ऊपरी भाग चिकना व निचला भाग रूखा व
शिरायुक्त होता है। अर्जुन वृक्ष पर बसंत के मौसम में सफेद या पीले रंग की
मंजरियाँ आती हैं, इन्हीं पर कमरक के आकार के लेकिन थोड़े छोटे फल लगते
हैं। 2 से.मी. से 5 से. मी. लंबे ये फल कच्ची अवस्था में हरे-पीले तथा पकने पर
भूरे लाल रंग के हो जाते हैं। फलों की गंध अरूचिकर व स्वाद कसैला होता है। फल से
इस वृक्ष की पहचान आसानी से हो जाती है। अर्जुन के वृक्ष का गोंद स्वच्छ, सुनहरा व
पारदर्शी होता है।
अर्जुन की छाल में पाये
जाने वाले मुख्य घटक हैं- बीटा साइटोस्टेराल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रीडेलीन।
विभिन्न प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि अर्जुन से ह्रदय की माँसपेशियों को बल
मिलता है, स्पन्दन ठीक व सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है।
ह्रदय की रक्तवाही(कोरोनरी) धमनियों में रक्त का थक्का नहीं बनने देता।
अर्जुन की छाल को सुखाकर चूर्ण बनाकर किसी सूखे व शीतल स्थान पर रखना चाहिये। अर्जुन की छाल का प्रयोग कब, कितना, कैसे करना है ये किसी आयुर्वेदिक विशेषज्ञ से परामर्श कर के ही करना चाहिये।
महुआ
महुआ एक भारतीय उष्ण कटिबन्धीय
वृक्ष है जो भारत के मैदानी भागों में व जंगलों में बहुतायत से पाये जाते हैं।
महुआ का वानस्पतिक नाम लोंगफोलिआ है। इसकी ऊंचाई 25 मी. तक होती है और पत्तियाँ
हमेशा हरी रहती हैं। पत्तियों की लंबाई 6-7 इंच और चौड़ाई 3-4 इंच होती है।
पत्तियाँ दोनों तरफ से नुकीली होती हैं। पत्तियों का ऊपरी भाग हल्के हरे रंग का व
पृष्ठ भाग भूरे रंग का होता है। इसका वृक्ष बीस से पच्चीस बर्षों के बीच फूलना-फलना
शुरू होता है और सैंकड़ों वर्षों तक फूलता-फलता रहता है। लेकिन महुआ की कुछ
प्रजाति जैसे ऋषिकेश, अश्विनकेश, जटायुपुष्प, आदि 4-5 वर्ष में ही फूल-फल
देने लगते हैं, ये प्रायः दक्षिणी भारत में पाये जाते हैं।
महुआ में मार्च-अप्रैल के
महीने में फूल आते हैं। फूल आने से पहले पत्तियाँ झड़ जाती हैं और सिरे पर गुच्छे के
रूप में कलियाँ निकलती हैं और ये कूँची के आकार की होती हैं। कलियों के खिलने पर कोश
के आकार का सफेद फूल निकलता है जो दोनों ओर से खुला होता है, फूल के अंदर जीरे
होते हैं। यही फूल खाने के काम आता है और महुआ कहलाता है। इसका प्रयोग हरे और
सूखे दोनों रूप में होता है। महुआ का रस तलने के काम आता है और सूखा महुआ पीसकर आटे
में मिलाया जाता है। दुधारू पशुओं को भी खिलाया जाता है। साथ ही महुआ से शराब भी
बनायी जाती है। महुये के बीज से तेल निकालने के बाद खली पशुओं को खिलाने के काम
आती है।
महुआ का पेड़ का आदिवासी समाज से गहरा संबंध है। सामाजिक कार्यकर्ता राकेश देवड़े बिरसावादी जयस बिरसा ब्रिगेड ने बताया है कि महुआ के पेड़ और प्राचीन आदिवासी समाज का बहुत गहरा नाता है, जब अनाज नहीं था तब आदिम आदिवासी समाज के लोग महुआ के फल को खाकर अपना जीवन गुजारते थे, आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाये जाते हैं। विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है।
धान
धान(चावल) का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है. खाद्यान्न के रूप में तो गेहूँ के बाद चावल का प्रयोग ही सबसे अधिक होता ही है. भारतीय संस्कृति में प्रतीक रूप से भी चावल के विभिन्न रूपों का प्रयोग होता है जैसे-अक्षत, खील, धान.
अक्षत-
अक्षत साबूत चावल को कहते हैं. हर पूजा की थाली में रोली-चन्दन के साथ अक्षत अवश्य रखे जाते हैं, ये श्वेत वर्ण मोती के प्रतीक हैं.
खील-
खील छिलका सहित चावल(धान) से बनायी जाती है. दीवाली पर्व पर लक्ष्मी-पूजन में बतासे-खिलौने के साथ खील का भी भोग लगाया जाता है. जैसे- धान अग्नि के गर्भ में तपकर शुभ्रवर्ण मुस्काती खील में परिवर्तित हो जाती है उसी प्रकार दीवाली की रात असंख्य दीपकों की रोशनी से अँधेरी रात भी जगमग-जगमग करती मुस्कुरा उठती है.
खील का विवाह के समय भी प्रतीक रूप में विशेष महत्व है. विवाह के समय नव-दम्पत्ति अग्नि में खील की आहुति देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि जब तक पति-पत्नी दोनों मिलकर रहेंगे उनका जीवन सदा खील की तरह मुस्कुराता रहेगा. जैसे- जब तक धान में चावल के साथ छिलका जुड़ा रहता है धान खील के रूप में अग्नि के गर्भ से भी बाहर मुस्कुराती जाती है.
धान-
कन्या के विवाह के समय गौरी पूजन के समय कन्या के चारों ओर कन्या के माता-पिता, चाचा-चाची, मामा-मामी, आदि सभी रिश्तेदार परिक्रमा करते हुये धान बोते हैं और माँ पानी देकर सींचती है जो इस बात का प्रतीक है कि कन्या का धन धान के समान होता है. जब तक इन्हें अन्य न रोपा जाये ये फलीभूत नहीं होती.
कल्प-वृक्ष - च्यूरा वृक्ष
च्यूरा एक सदाबहार
बहुउपयोगी वृक्ष है। इसे तेजी से बढ़ने वाले तिलहन मूल का वृक्ष भी कहते हैं। इसका
वैज्ञानिक नाम डिप्लोवनेमा बूटीरेशिया है। भारत में इसे मक्खन वृक्ष या बटर ट्री(Butter tree) के नाम से भी जाना जाता है। च्यूरा वृक्ष को मैदानी भागों
में पाये जाने वाले बहुउपयोगी महुआ वृक्ष की पहाड़ी प्रजाति का माना जाता है। भारत
के पहाड़ी राज्यों उत्तराखंड, कश्मीर, सिक्किम और भूटान में बहुतायत सा पाये जाते
हैं। उत्तराखंड के कुमायूँ मंडल में अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चम्पावत
जिले में काली, पनार, रामगंगा और सरयू नदी, नैनीताल के पास भीमताल के आस-पास के
स्थानों में च्यूरा के वृक्ष बहुत अधिक हैं।
च्यूरा का वृक्ष ऊँचा और
तना मजबूत होता है। इसकी ऊँचाई 15 मी. से 22 मी. तक होती है तथा तने की चौड़ाई 1.5
मी. से 3 मी. तक होती है। च्यूरा वृक्ष की पत्तियाँ 20-25 से. मी. लम्बी और 9-18
से. मी. चौड़ी होती हैं जो शाखाओं के अग्रभाग पर गुच्छे के रूप में लगी होती हैं।
इनकी पत्तियाँ शुभ मानी जाती हैं और आम के पत्तों की तरह बंदनवार बनाने के काम आती
हैं। साथ ही पौष्टिक होने के कारण दुधारू पशुओं के चारे के रूप में पत्तियों का
प्रयोग किया जाता है।
च्यूरा के फूल सफेद या पीले
रंग के होते हैं जो जनवरी से अक्टूबर महीने के बीच खिलते हैं। फूलों का व्यास 2.0
से 2.5 से. मी. होता है। फूल बहुत ही सुगंधित होता है जिसके कारण मधुमक्खियाँ इनकी
ओर आकर्षित होती हैं। इनके फूलों से प्राप्त शहद उत्तम स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से
भरपूर होता है। च्यूरा के फल का गूदा स्वादिष्ट, मीठा, सुगंधित व रसीला होता है। इसके
फल के गूदे में शर्करा की मात्रा बहुत अधिक होती है, जिससे स्थानीय लोग गुड़ बनाते
हैं. गूदे के अवशेषों को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है।
च्यूरा के फलों के अन्दर 1.5
से. मी. से 2.0 से.मी. लम्बाई वाले काले चमकदार लगभग बादाम के आकार के बीज होते
हैं जिनके अंदर सफेद गिरी होती है। इनके बीजों का उपयोग वनस्पति घी बनाने में किया
जाता है और घी की तरह ही खाने में प्रयोग किया जाता है। च्यूरा के बीजों से
प्राप्त घी देसी घी के समान ही गुणकारी होता है। च्यूरा वृक्ष की जड़ों की भूमि पर
मजबूत पकड़ होती है। जिस कारण यह वृक्ष पहाड़ी ढ़लानों पर भू-कटाव को रोकने में
अत्यधिक उपयोगी माना जाता है।
इस प्रकार च्यूरा वृक्ष का
लगभग प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में मानव जीवन में अपनी अहम् भूमिका निभाता है।
इसीलिये च्यूरा वृक्ष को कल्प-वृक्ष भी कहते हैं।
कत्था
डॉ. मंजूश्री गर्गपान का हमारी संस्कृति में
महत्वपूर्ण स्थान है। पूजा-अर्चना में ही नहीं, प्रायः भोजन के पश्चात् हमारे यहाँ
पान खाने की परम्परा है। पान बनारस का हो या कलकत्ता का सभी में कत्था अवश्य लगाया
जाता है। पान खाने से जो होंठ और मुँह लाल होते हैं वो कत्थे के कारण ही होते हैं।
कत्था हमें खैर नामक पेड़
की लकड़ी से प्राप्त होता है। खैर एक प्रकार का बबूल का पेड़ है। इस वृक्ष की
लकड़ी के टुकड़ों को उबाल कर और उसके रस को जमा कर कत्था बनाया जाता है, जो पान
में चूने के साथ लगाया जाता है।
खैर को कथकीकर और सोनकर भी
कहते हैं। यह समस्त भारत में पाया जाता है। जब खैर के पेड़ का तना लगभग 12 इंच
मोटा हो जाता है तो इसे काट लेते हैं और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गर्म पानी
में पकाते हैं। गाढ़ा रस निकालने के बाद चौड़े बर्तन में खुला रख कर सुखाया जाता
है। सूखने के बाद चौकोर आकार का काट लेते हैं। यही कत्था होता है जिसे पानी
में घोलकर पान की पत्ती पर लगाया जाता है। मुँह के फंगल इंफेक्शन में भी कत्था
बहुत लाभकारी होता है। मुँह में छाले होने पर सूखा कत्था छोटी हरी इलायची के साथ
मुँह में रखने से आराम मिलता है।
वैजयंती माला
डॉ. मंजूश्री गर्ग
वैजयंती माला विष्णु भगवान को बहुत प्रिय है और श्री कृष्ण की प्रिय पाँच वस्तुओं(गाय, बाँसुरी, मोरपंख, माखन-मिश्री और वैजयंती माला) में से एक है। वैजयंती माला का शाब्दिक अर्थ है विजय दिलाने वाली माला।
वैजयंती के पत्ते हरे रंग
के और एक मीटर तक लंबे होते हैं और दो इंच के लगभग चौड़े होते हैं। ये पत्ते सीधे
जमीन से निकलते हैं इनमें कोई तना या टहनी नहीं होती। वैजयंती के पौधे में कोई फूल
नहीं आता, एक बीज फली के साथ निकलता है। बीज में ही जुड़ा हुआ पराग होता है। ऊपर
से पराग तोड़कर बीज प्राप्त किया जाता है जो एक मोती के समान चमकीला होता है।
प्रारम्भ में यह हरे रंग का होता है पकने पर भूरे रंग का हो जाता है। वैजयंती बीज
कमल गट्टा(कमल का बीज) के आकार का होता है। वैजयंती का पौधा कैना-लिली(केलई) से
भिन्न होता है।
वैजयंती बीज की विशेषता है कि इसमें धागा डालने के लिये प्राकृतिक रूप से छेद
बना होता है। वैजयंती माला को धारण करने
के लिये सोमवार और शुक्रवार का दिन शुभ है।
कचनार
डॉ. मंजूश्री गर्ग
कचनार का वृक्ष
सड़क किनारे या उपवनों में अधिकांशतः पाया जाता है। नवंबर से मार्च तक के महीनों
में अपने गुलाबी व जामुनी रंगों के फूलों से लदा ये वृक्ष अपनी सुंदरता से सहज ही
सबका मन मोह लेता है।
सन् 1880 ई.
में हांगकांग के ब्रिटिश गवर्नर सर् हेनरी ब्लेक(वनस्पतिशास्त्री) ने अपने घर के
पास समुद्र किनारे कचनार का वृक्ष पाया था। उन्हीं के सुझाये हुये नाम पर कचनार का
वानस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना पड़ गया। कचनार हांगकांग का राष्ट्रीय फूल है और
इसे आर्किड ट्री के नाम से भी जाना जाता है। भारत में मुख्यतः कचनार के नाम से ही
जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कन्दला या कश्चनार कहते हैं। भारत में यह उत्तर से
दक्षिण तक सभी जगह पाया जाता है।
कचनार के पेड़
की लंबाई 20 फीट से 40 फीट तक होती है। कचनार अपनी पत्तियों के आकार के कारण सहज
ही पहचान में आ जाता है। पत्तियाँ गोलाकार होती हैं और अग्रभाग से दो भागों में
बँटी होती हैं। मध्य रेखा से आपस में जुड़ी होती हैं। इसकी पत्तियों की तुलना ऊँट
के खुर से भी की जाती है। कचनार के गुलाबी रंग के फूल के पेड़ों में जब फूल आने
शुरू होते हैं तो अधिकांशतः पत्तियाँ झड़ जाती हैं। जामुनी रंग के कचनार के पेड़ों
में प्रायः फूलों के साथ पत्तियाँ भी रहती हैं। कचनार के फूलों में पाँच पँखुरियां
होती हैं और फूलों से भीनी सुगंध आती है।
कचनार के पेड़
भूस्खलन को भी रोकते हैं। कचनार के फूल की कली देखने में भी सुंदर होती है और खाने
में स्वादिष्ट भी। कचनार के वृक्ष अनेक औषधि के काम आते हैं व इससे गोंद भी निकलता
है। कचनार की पत्तियाँ दुधारू पशुओं के लिये अच्छा आहार होती हैं।