शंख
डॉ. मंजूश्री गर्ग
शंख की उत्पत्ति देवासुरों द्वारा किये गये समुद्रमंथन के समय चौदह रत्नों में
से एक रत्न के रूप में भी हुई. पांचजन्य नामक शंख
समुद्मंथन के समय प्राप्त हुआ, जो अद्भुत स्वर, रूप व गुणों से सम्पन्न था. इसे भगवान विष्णु जी ने एक आयुध के रूप में स्वयं धारण किया. अधिकांश देवी-देवता शंख को आयुध के रूप में धारण करते हैं.
शंख समुद्र की घोंघा जाति का प्राणिज द्रव्य है. यह दो प्रकार का होता है-दक्षिणावर्ती और उत्तरावर्त्ती. दक्षिणावर्त्ती का मुँह दक्षिण की ओर खुला रहता है और यह
बजाने के काम नहीं आता है. यह अशुभ माना जाता है, जिस घर में यह होता है वहाँ लक्ष्मी का निवास नहीं होता है. इसका प्रयोग अर्ध्य देने के लिये किया जाता है. उत्तरावर्त्ती शंख का मुँह उत्तर दिशा की ओर खुला रहता है. इसको बजाने के लिये छिद्र होते हैं. इसकी ध्वनि से रोग उत्पन्न करने वाले किटाणु मर जाते हैं या
कमजोर पड़ जाते हैं. उत्तरावर्त्ती शंख घर में रखने से
लक्ष्मी का निवास होता है.
अर्थववेद के अनुसार शंख ध्वनि व शंख जल के प्रभाव से बाधा, आदि अशान्तिकारक तत्वों का पलायन हो जाता है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीस चन्द्र वसु ने अपने यंत्रों के
द्वारा यह खोज की थी कि एक बार शंख फूँकने पर उसकी ध्वनि जहाँ तक जाती है वहाँ तक
अनेक बीमारियों के कीटाणुओं के दिल दहल जाते हैं और ध्वनि स्पंदन से वे मूर्छित हो
जाते हैं. यदि निरन्तर प्रतिदिन यह क्रिया की जाये
तो वहाँ का वायुमण्डल हमेशा के लिये ऐसे कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है.
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