महुआ
डॉ. मंजूश्री गर्ग
महुआ एक भारतीय उष्ण कटिबन्धीय
वृक्ष है जो भारत के मैदानी भागों में व जंगलों में बहुतायत से पाये जाते हैं।
महुआ का वानस्पतिक नाम लोंगफोलिआ है। इसकी ऊंचाई 25 मी. तक होती है और पत्तियाँ
हमेशा हरी रहती हैं। पत्तियों की लंबाई 6-7 इंच और चौड़ाई 3-4 इंच होती है।
पत्तियाँ दोनों तरफ से नुकीली होती हैं। पत्तियों का ऊपरी भाग हल्के हरे रंग का व
पृष्ठ भाग भूरे रंग का होता है। इसका वृक्ष बीस से पच्चीस बर्षों के बीच फूलना-फलना
शुरू होता है और सैंकड़ों वर्षों तक फूलता-फलता रहता है। लेकिन महुआ की कुछ
प्रजाति जैसे ऋषिकेश, अश्विनकेश, जटायुपुष्प, आदि 4-5 वर्ष में ही फूल-फल
देने लगते हैं, ये प्रायः दक्षिणी भारत में पाये जाते हैं।
महुआ में मार्च-अप्रैल के
महीने में फूल आते हैं। फूल आने से पहले पत्तियाँ झड़ जाती हैं और सिरे पर गुच्छे के
रूप में कलियाँ निकलती हैं और ये कूँची के आकार की होती हैं। कलियों के खिलने पर कोश
के आकार का सफेद फूल निकलता है जो दोनों ओर से खुला होता है, फूल के अंदर जीरे
होते हैं। यही फूल खाने के काम आता है और महुआ कहलाता है। इसका प्रयोग हरे और
सूखे दोनों रूप में होता है। महुआ का रस तलने के काम आता है और सूखा महुआ पीसकर आटे
में मिलाया जाता है। दुधारू पशुओं को भी खिलाया जाता है। साथ ही महुआ से शराब भी
बनायी जाती है। महुये के बीज से तेल निकालने के बाद खली पशुओं को खिलाने के काम
आती है।
महुआ का पेड़ का आदिवासी समाज से गहरा संबंध है। सामाजिक कार्यकर्ता राकेश देवड़े बिरसावादी जयस बिरसा ब्रिगेड ने बताया है कि महुआ के पेड़ और प्राचीन आदिवासी समाज का बहुत गहरा नाता है, जब अनाज नहीं था तब आदिम आदिवासी समाज के लोग महुआ के फल को खाकर अपना जीवन गुजारते थे, आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाये जाते हैं। विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है।
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