साहित्यकार के गुण
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
साहित्यकार के लिये संवेदनशील होना आवश्यक है, लेकिन हर संवेदनशील व्यक्ति
साहित्यकार होगा यह आवश्यक नहीं है क्योंकि साहित्यकार में अन्य गुणों का होना भी आवश्यक
है. ये गुण साहित्यकारों में कुछ जन्मजात होते हैं जिन्हें प्रतिभा कहते हैं. कुछ
शास्त्र ज्ञान, लोक ज्ञान, आदि के द्वारा साहित्यकार अपने अन्दर विकसित करते हैं
जिन्हें व्युत्पत्ति कहते हैं और कुछ गुण निरंतर अभ्यास से साहित्यकार में विकसित
होते हैं.
साहित्यकार के गुणों का वर्णन भारतीय आचार्यों
ने काव्य के हेतु या लक्षण या धारक तत्व के रूप में किया है. आचार्य भामह ने
प्रतिभा को सर्वोपरि माना है और काव्य सृजन का मूल कारण प्रतिभा को ही माना है.
आचार्य दण्डी ने काव्य के हेतु तीन बताये हैं- नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल लोक ज्ञान
और अमन्द अभियोग अर्थात् निरन्तर अभ्यास-
नैसर्गिक च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दश्चीभेयोगोस्या अस्या कारणं काव्य-संभवः।।
आचार्य मम्मट ने भी काव्य के हेतु तीन माने हैं- शक्ति(प्रतिभा),
व्युत्पत्ति(लोकज्ञान), और अभ्यास. मम्मट के अनुसार तीनों के सामुदायिक प्रभाव से
ही सत्काव्य जन्म ले पाता है-
शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्यवेक्षण्यत्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।
पाश्चात्य विचारकों में अरस्तु ने प्रतिभा को जन्मजात माना है(a man of born
talent) और कवि के लिये
इसी प्रकार की प्रतिभा का अधिकारी होना आवश्यक बताया है. अरस्तु ने कवि के लिये
सूझबूझ को( The man of all round natural understanding) भी आवश्यक माना है.
वर्नदते क्रोचे के मतानुसार मानस की समस्त क्रियायें दो प्रकार की होती हैं-
विचारात्मक और व्यवहारात्मक. विचारात्मक के भी दो भेद होते हैं- स्वयं प्रकाश
ज्ञान और प्रभा. स्वयं प्रकाश ज्ञान से उत्पन्न स्वयं प्रकाश-अभिव्यंजना (Intuition-Expression) को जब कवि
वाह्याभिव्यंजना(Externalization ) में ढ़ालता है, तभी काव्य कृति का जन्म होता
है.
वाह्याभिव्यंजना से तात्पर्य लोकज्ञान तथा निरन्तर अभ्यास द्वारा अर्जित
कलाकारिता सम्बन्धी ज्ञान से है.
इस प्रकार भारतीय एवम् पाश्चात्य सभी विचारकों ने साहित्यकार के तीन गुण माने
हैं-
1. प्रतिभा
2. व्यवहारिक ज्ञान
3. अभ्यास
1.प्रतिभा-
प्रतिभा दो प्रकार की होती है- सहजा और उत्पाद्या. जिस रचनाकार में सहजा
प्रतिभा होती है उसकी रचना में अनूठी सहजता एवम् प्रवाहमयता आ जाती है. कुछ
व्यक्तियों में प्रतिभा सुषुप्त अवस्था में रहती है. किसी विशेष घटना के घटित होने
पर वह प्रस्फुटित होती है. तुलसीदास और कालिदास की प्रतिभा इसी कोटि की है. कुछ
व्यक्ति अध्ययन व अभ्यास से प्रतिभा उत्पन्न करते हैं उसे उत्पाद्या कहते हैं.
2. व्यवहारिक ज्ञान-
प्रतिभा के साथ-साथ साहित्यकार को विविध शास्त्रों का ज्ञान, लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त कर साहित्य रचना करने पर साहित्यकार को दक्षता प्राप्त होती है. कहा भी गया है कि देशाटनं, राजसभा प्रवेशः, वारांगना का साहचर्य, पंडितजन का सत्संग तथा विविध शास्त्रों का अवलोकन- चातुर्य के ये मूल तत्व हैं.
प्रतिभा के साथ-साथ साहित्यकार को विविध शास्त्रों का ज्ञान, लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त कर साहित्य रचना करने पर साहित्यकार को दक्षता प्राप्त होती है. कहा भी गया है कि देशाटनं, राजसभा प्रवेशः, वारांगना का साहचर्य, पंडितजन का सत्संग तथा विविध शास्त्रों का अवलोकन- चातुर्य के ये मूल तत्व हैं.
बौद्धिक प्रगाढ़ता प्राप्त करने के उपरान्त साहित्यकार मौलिक चिंतन द्वारा
मौलिक उद्भावनायें करता है. जैसे- रामचरित मानस में कवि तुलसीदास ने अनेकों
पुराणों, शास्त्रों तथा वेदों के ज्ञान को सर्वथा मौलिक चिंतन द्वारा अभिव्यक्त
किया है.
3.अभ्यास-
निरन्तर अभ्यास अध्यवसाय एवम् स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है और
ज्ञान आत्मा का अंग बन जाता है. जिन व्यक्तियों में सहज प्रतिभा होती है उनको भी
निरंतर अध्ययन व अभ्यास की आवश्यकता होती है. कुछ व्यक्ति सहज प्रतिभा के धनी न
होते हुये भी निरंतर अध्ययन व अभ्यास से अपने अन्दर प्रतिभा को उत्पन्न कर
पांडित्य को प्राप्त होते हैं. आचार्य केशवदास ऐसे ही कवि हैं.
इस प्रकार एक श्रेष्ठ साहित्यकार में जन्मजात श्रेष्ठ संस्कार हों, वह निरन्तर
अध्ययन एवम् सत्संग द्वारा अपने ज्ञान में वृद्धि करे तथा स्वाध्याय एवम् अभ्यास
द्वारा अपने ज्ञान को परिपक्व करे. इन गुणों से युक्त साहित्यकार ही श्रेष्ठ, अमर,
प्राकृत वाक्य-रचना करने में समर्थ होता है.
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