भारत के स्वाधीनता संग्राम
में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका
Role of Netaji Subhash Chandra Bose
in India’s struggle for freedom
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
भारत के स्वाधीनता संग्राम में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मुख्य भूमिका रही
है. इसीलिये नेताजी सुभाषचन्द्रबोस का नाम भारत के स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों
में प्रमुखता से लिया जाता है. नेताजी का व्यक्तित्व प्रारंभ से ही निडर, अन्याय
और अत्याचार को सहन ना करने वाला, ओजस्वी और वीरता पूर्ण रहा. गुलामी उनके लिये
सबसे बड़ा अभिशाप थी. आजादी के लिये वो कुछ भी कुर्बानी देने को तैय्यार थे.
नेताजी ने स्वयं आई0 सी0 एस0 से इस्तीफा देकर भारत माता की आजादी के लिये अपना
जीवन समर्पित किया. सन् 1857 ई0 के बाद पहली बार नेताजी ने भारतीय सेना को
संगठित किया और ‘आजाद हिन्द फौज’ का निर्माण किया और अपनी सेना को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया. नेताजी ने ‘जय हिन्द’ का नारा भी दिया, जो कि
स्वतन्त्र भारत का राष्ट्रीय नारा बना.
बाबू सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा राज्य के कटक नगर के प्रसिद्ध वकील बाबू
जानकीनाथ बोस के घर 23 जनवरी, सन् 1897 ई0 को हुआ था. बाबू सुभाषचन्द्र बोस बचपन
से ही मेधावी और स्वाभिमानी थे. विद्यार्थी जीवन से ही नेताजी ने अन्याय और
अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करना प्रारंभ कर दिया था और अपने सहपाठियों को भी
अपमान का बदला लेने की प्रेरणा दी थी. उनके विद्यार्थी जीवन की एक घटना से यह बात
और स्पष्ट होती है.
एक दिन सुभाषजी की कक्षा में एक अंग्रेज बच्चे ने भारतीय बच्चे के साथ
दुर्व्यवहार करते हुये कहा, ‘शटअप ईडियट-यू ब्लैक इंडियंस’, लेकिन भारतीय बच्चे ने
बदले में उससे कुछ भी नहीं कहा, यही नहीं कक्षा के किसी और बच्चे ने भी उससे बदला
लेने की हिम्मत नहीं दिखाई. यह देखकर अंग्रेज बालक और शेर बन गया और उसे ‘डैम डॉग’ की गाली दी. इस पर भी वह
भारतीय बालक न तो क्रोधित हुआ और ना ही उसके मन में प्रतिरोध की कोई भावना जागी,
वरन् उसकी आँखों मे क्षमा याचना का भाव था. यह देखकर सुभाषजी के नेत्रों से चिनगारियाँ
निकलने लगीं, उन्होंने मध्यांतर में अपने सहपाठी भारतीय बालक को बुलाकर कहा कि, “तुम बुजदिल हो. अगर उस गोरे
बदमाश ने मेरा अपमान किया होता तो मैं मारते-मारते उसका कचूमर निकाल
देता.-------लेकिन घबराओ मत. मैं उस अंग्रेज के बच्चे से तुम्हारे अपमान का बदला
लूँगा. भले ही वह किसी बड़े अफसर का बेटा हो.” उसके सशंकित होने पर सुभाषजी ने कहा, “अन्याय का विरोध करना
प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है, चाहे परिणाम कुछ भी हो. हमारी अन्याय सहने की कमजोरी
ने ही हमें गुलाम बना रखा है.” और छुट्टी होने पर उस अंग्रेज बच्चे को पीटकर भारतीय बालक
के अपमान का बदला भी लिया.
बाबू सुभाषचन्द्र बोस ने एन्ट्रेस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की.
तत्पश्चात् वे कलकत्ता के प्रेसाडेंसी कॉलेज में पढ़ने गये. इस कॉलेज में भारतीय
विद्यार्थियों को अंग्रेज अध्यापकों व अंग्रेज विद्यार्थियों द्वारा तिरस्कार की
दृष्टि से देखा जाता था. नेताजी ने अपनी संगठन शक्ति का परिचय देते हुये भारतीय
विद्यार्थियों का एक दल बनाया. इस दल ने उन अंग्रेज अध्यापकों का विरोध किया, जो
भारतीय विद्यार्थियों का तिरस्कार करते थे. परिणाम स्वरूप नेताजी पर झूठे आरोप
लगाकर कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया. बाद में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से
बी0 ए0 की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की.
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेकर देश-सेवा करना चाहते
थे, जबकि उनके पिता की प्रबल इच्छा थी कि मेरा बेटा आई0 सी0 एस0 की परीक्षा पास
करके उच्च अधिकारी बने. नेताजी ने अपने पिता से कहा भी कि, “ पिताजी! वास्तव में मैंने कभी आई0
सी0 एस0 बनने की आकांक्षा नहीं की.-----आई0 सी0 एस0 बनकर मैं नैतिकता और
स्वतन्त्रता के साथ अपनी आत्मा और अपने देश के प्रति न्याय नहीं कर सकूँगा. किसी
भी सम्पन्न पिता का बेटा आई0 सी0 एस0 बन सकता है और यह उसके लिये कोई असाधारण बात
नहीं होगी, किन्तु उसी प्रतिभा का सदुपयोग यदि जन-सेवा के लिये किया जाये तो गौरव
का बिषय होगा.” यह सुनकर उनके पिता
गंभीर हो गये और पुत्र के स्वाभिमान पर प्रहार करते हुये उन्होंने कहा, “ साफ क्यों नहीं कहते कि
तुममें आई0 सी0 एस0 परीक्षा पास करने की क्षमता ही नहीं है.” अपने स्वाभिमान पर नेताजी
यह आघात सह नहीं सके.
अपने स्वाभिमान की रक्षा व पिता की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये नेताजी आई0 सी0
एस0 की प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिये इग्लैंड गये और आई0 सी0 एस0 की
परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, किंतु अपनी अंतरात्मा की आवाज को नेताजी
अनसुनी न कर सके. उनके मन में देश भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी, वे देश को
स्वतन्त्र देखना चाहते थे और पराधीन देश की जनता की सेवा करना चाहते थे जो कि विदेशी
सत्ता के अधीन कार्य करके संभव नहीं हो सकती थी. अतः उन्होंने आई0 सी0 एस0 से
इस्तीफा दे दिया और भारत लौट आये.
भारत लौटकर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस तन, मन, धन से भारत के स्वतन्त्रता संग्राम
में कूद पड़े. जिस समय वे भारत आये, यहाँ महात्मा गाँधी का सविनय अवज्ञा आन्दोलन
चल रहा था. बंगाल में देशबन्धु चितरंजन दास का विशेष प्रभाव था, सुभाषजी ने उन्हें
अपना राजनैतिक गुरू बनाया. उस समय जहाँ अंग्रेज सरकार ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के, भारत आगमन पर, भव्य
स्वागत की तैय्यारी में लगी हुई थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता स्वागत
समारोह के बहिष्कार का प्रयत्न कर रही थी. बंगाल में देशबन्धु चितरंजनदास और
नेताजी के प्रयासों से ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के स्वागत समारोह का बहिष्कार बहुत सफल रहा. सुभाषजी की अद्भुत संगठनात्मक
शक्ति से चिंतित हो, अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.
असहयोग आंदोलन बंद होने पर सभी नेता जेल से रिहा हो गये थे. जेल से रिहा होने
पर नेताजी ने अपने राजनैतिक गुरू देशबन्धु के साथ मिल अपनी राजनैतिक गतिविधियाँ और
तेज कर दी. देशबन्धु और मोतीलाल नेहरू से मिलकर ‘स्वराज्य’ दल का गठन किया और अपने
अथक परिश्रम से इसकी शक्ति को बहुत बढ़ाया. सन् 1918 ई0 में कलकत्ता नगर निगम के
निर्वाचन में स्वराज्य पार्टी को सफलता मिली और सुभाषजी निगम के कार्यपालक अधिकारी
हुये. इस पद पर रहते हुये उन्होंने सार्वजनिक कल्याण के अनेक कार्य किये.
देश में राष्ट्रीय जागरण के लिये देशबन्धु चितरंजनदास ने एक ‘बांगलार कथा’ नामक पत्र निकाला, जिसका
संपादन सुभाषजी ने किया और दूसरा ‘फारवर्ड’ नामक पत्र निकाला, जिसके प्रबंधक सुभाषजी बने.
दोनों ही पत्रों के लिये सुभाषजी ने अथक परिश्रम किया और अपनी ओजस्वी लेखनी शक्ति
के माध्यम से भारत की सोई हुई जनता के मन में नव उत्साह का संचार किया.
देश में जहाँ एक ओर गाँधीजी का अहिंसात्मक आन्दोलन चल रहा था, वहीं
क्रांतिकारी नेताओं का सशस्त्र आन्दोलन भी चल रहा था. कांग्रेस के नेता होने पर भी
सुभाषजी ने क्रांतिकारी नेताओं से बराबर संपर्क बनाये रखा. यद्यपि सन् 1938 ई0 और
सन् 1939 ई0 में नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये किंतु कुछ बातों पर गाँधीजी
से मतभेद होने पर वे कांग्रेस से अलग हो गये औऱ ‘फारवर्ड ब्लाक’ नामक नये राजनैतिक दल की
स्थापना की. अल्प समय में ‘फारवर्ड ब्लाक’ ने पूरे देश में लोकप्रियता अर्जित कर ली. नेताजी की अद्भुत संगठन शक्ति से
घबराकर अंग्रेज सरकार ने भारत रक्षा कानून के अंतर्गत नेताजी को गिरफ्तार कर लिया.
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ होने पर देश में स्वाधीनता आंदोलन की
गतिविधियाँ कम हो गयी थीं किंतु नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ब्रिटिश शासन से मुक्ति
पाने का यही उपयुक्त अवसर समझते थे. उन्होंने अपनी मुक्ति के लिये जेल में ही आमरण
अनशन प्रारंभ कर दिया था. आमरण अनशन से भयभीत हो अंग्रेज सरकार ने नेताजी को उनके
घर पर ही नजरबंद कर दिया. सुभाष बाबू चाहते थे कि इस समय अंग्रेजों के विरूद्ध जिस
भी देश से सहायता मिल सके, लेनी चाहिये. इसके लिये उन्होंने गुप्त रूप से बाहर
जाने की योजना बनायी.
कलकत्ता के एलगिन रोड के मकान में नजरबंद की स्थिति में नेताजी पर सशस्त्र
पुलिस के साथ-साथ सादे वेशधारी अनेक जासूस भी कड़ी निगरानी रखते थे. किसी भी बाहरी
व्यक्ति को उनसे मिलने की अनुमति नहीं थी. नेताजी ने दाढ़ी बढ़ा ली और 17 जनवरी,
सन् 1941 ई0 की आधी रात को अपना वेश बदलकर, पठानी पायजामा, शेरवानी और पंप शू पहन
लिया. सिर पर टोपी लगाकर, एक पठान का वेश धारण कर लिया और अंग्रेजों की आँखों में
धूल झोंकते हुये कार में बैठकर रेलवे स्टेशन पहुँचे. नेताजी रूस जाना चाहते थे
किंतु वहाँ रूसी दूतावास से कोई मदद न मिलने पर वे इटली के राजदूत से मिले. इटली
के राजदूत ने उनकी मदद की और नेताजी उसकी सहायता से बर्लिन पहुँचे. जर्मनी में
हिटलर से भेंट की. नेताजी अभी अपने भविष्य के कार्यक्रम पर विचार कर ही रहे थे कि
उन्हें सिंगापुर आने का निमंत्रण मिला. युद्ध के खतरों की चिंता न करते हुये
नेताजी पनडुब्बी में बैठकर सिंगापुर पहुँचे.
सिंगापुर और उसके आस-पास के देशों में भारतीय बहुत अधिक संख्या में बसे हुये
थे. नेताजी ने प्रवासी भारतीयों को संगठित किया और भारत की स्वतन्त्रता के लिये
उनको तन, मन, धन से तत्पर होने के लिये तैय्यार किया. अंग्रेजों ने सिंगापुर
मोर्चे पर जापानियों से युद्ध करने के लिये भारतीय सेना भेज रखी थी और जापानियों
ने विभिन्न मोर्चों पर अंग्रेजी सेना को हरा, उनके सैनिकों को बंदी बना लिया था.
इन बंदी सैनिकों में जो भारतीय सैनिक थे, उनको नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने मुक्त
कराया और इन सैनिकों को संगठित कर ‘आजाद हिन्द फौज’ का संगठन किया. प्रवासी
भारतीयों ने ‘आजाद हिन्द फौज’ के लिये अपार धन दिया.
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अपने ओजस्वी भाषणों के द्वारा विदेशों में बसे
हजारों युवक-युवतियों को ‘आजाद हिन्द फौज’ में भर्ती होने के लिये प्रोत्साहित किया. नेताजी के प्रोत्साहन से रंगून में
युवक-युवतियों द्वारा प्राणोत्सर्ग के प्रतिज्ञा-पत्र पर खून से हस्ताक्षर करने की
घटना अपना विशेष महत्व रखती है.
रंगून के जुबली हॉल में ‘आजाद हिन्द फौज’ में भर्ती होने वाले युवक-यवतियों को सम्बोधित
करते हुये कहा, “स्वतन्त्रता बलिदान चाहती है आप लोगों ने आजादी के लिये बहुत त्याग किया,
किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना बाकी है. हमें ऐसे नवयुवकों की आवश्यकता है, जो
अपने हाथों से अपना सिर काटकर स्वाधीनता के लिये निछावर कर सकें. आप मुझे अपना खून
दें, मैं आपको आजादी दूँगा.”
सभा में बैठे हजारों नवयुवक पुकार उठे, “हम अपना खून देंगे”. सुभाष बाबू ने एक
प्रतिज्ञा-पत्र आगे बढ़ाते हुये कहा, “आप लोग इस प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर दीजिए.
इस प्रतिज्ञा-पत्र पर साधारण स्याही से हस्ताक्षर नहीं करना है. वही आगे बढ़े
जिसकी नसों में सच्चा भारतीय खून बहता हो, जिसे अपने प्राणों का मोह न हो और जो
आजादी के लिये सर्वस्व त्याग करने लिये
तैय्यार हो”. सुभाष बाबू की
प्रतिज्ञा सुनकर हजारों नवयुवक और नवयुवतियों ने अपनी अंगुली पर घाव कर, खून से
हस्ताक्षर किये.
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी ‘आजाद हिन्द फौज’ को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया. सिंगापुर
में ही नेताजी ने ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की. यहीं उन्होंने ‘जय हिन्द’ का नारा भी दिया, जो बाद में हमारे देश का
राष्ट्रीय नारा भी बन गया. ‘आजाद हिन्द फौज’ की अद्भुत संगठन शक्ति व कुशल नेतृत्व के कारण
ही सुभाष बाबू यहाँ ‘नेताजी’ के नाम से प्रसिद्ध
हुये और यही नाम उनके व्यक्तित्व का परिचायक बन गया.
द्वितीय विश्व युद्ध के समय ‘आजाद हिन्द फौज’ ने ब्रिटिश सैनिकों के विरूद्ध अनेक मोर्चों पर
युद्ध किया. युद्ध में विजय प्राप्त करती हुई यह सेना कई जगह भारत की सीमाओं के
अन्दर पहुँच गई, जहाँ तिरंगा झंडा गाड़कर आजादी घोषित कर दी गई. ‘आजाद हिन्द फौज’ के सैनिक देश-प्रेम में
मतवाले थे और देश की आजादी के लिये सदा अपनी जान हथेली पर लिये घूमते रहते थे. यही
कारण था कि ‘आजाद हिन्द फौज’ जिस मोर्चे पर भी जाती,
उन्हें विजय प्राप्त होती. परन्तु सन् 1945 ई0 में द्वीतीय विश्व-युद्ध में अचानक
युद्ध का पासा पलटने लगा और मित्र राष्ट्रों की विजय होने लगी. अंग्रेज भी
मित्र-राष्ट्रों में शामिल थे. अतः जगह-जगह अंग्रेजों की विजय से ‘आजाद हिन्द फौज’ को पीछे हटना पड़ा. यह बड़ी
बिषम परिस्थिति हुई, विजय पराजय में बदलने लगी. फिर भी नेताजी ने ‘आजाद हिन्द फौज’ के सैनिकों का उत्साह और
मनोबल बनाये रखा और कहा, “इसमें संदेह नहीं कि हमारे सैनिक गिरफ्तार हो जायेंगे पर देश में ऐसा उत्साह
और मनोबल बढ़ेगा कि ‘आजाद हिन्द फौज’ के सैनिक छूट जायेंगे और देश स्वतंत्र हो जायेगा.”
नेताजी की यह भविष्य वाणी पूर्णतः सत्य सिद्ध
हुई और 15 अगस्त सन् 1947 ई0 को भारत पूर्णतः स्वतन्त्र हो गया, किन्तु
स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व 18 अगस्त सन् 1945 ई0 को एक हवाई जहाज में नेताजी
यात्रा कर रहे थे कि विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और नेताजी लाल किले पर तिरंगा
फहराते हुये देखने से पूर्व ही उम्र भर की नींद सो गये.
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