देखते हैं जिधर ही उधर ही रसाल पुंज
मंजू मंजरी से मढ़े फूले न समाते हैं।
कहीं अरूणाभ, कहीं पीत पुष्प राग प्रभा,
उमड़ रही है, मन मग्न हुये जाते हैं।
कोयल उसी में कहीं छिपी कूक उठी, जहाँ-
नीचे बाल वृन्द उसी बोल से चिढ़ाते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
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