Sunday, February 16, 2025


देखते हैं जिधर ही उधर ही रसाल पुंज

मंजू मंजरी से मढ़े फूले न समाते हैं।

कहीं अरूणाभ, कहीं पीत पुष्प राग प्रभा,

उमड़ रही है, मन मग्न हुये जाते हैं।

कोयल उसी में कहीं छिपी कूक उठी, जहाँ-

नीचे बाल वृन्द उसी बोल से चिढ़ाते हैं।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

  

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