Sunday, November 18, 2018



हिन्दी गजलों में व्यैक्तिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

हिन्दी गजलों में विविध कारणों से उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हुई है. आधुनिक युग में विज्ञान के विस्तार के कारण जहाँ आवागमन के साधन बढ़े हैं, हम दूर के भी सम्बन्धियों से शीघ्र मिल सकते हैं, टेलीफोन पर बातें कर सकते हैं या ई-मेल द्वारा संदेशा भेज सकते हैं वहीं आज सम्बन्धों में अपनापन दिखाई नहीं देता. औपचारिकतायें अधिक निभाई जाती हैं और हर व्यक्ति अपने को अकेला महसूस करता है. औपचारिकताओं से उत्पन्न अकेलेपन की पीड़ा व मित्र-सम्बन्धियों के औपचारिकता पूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति हिन्दी गजलों में देखने को मिलती है जैसे
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कृत्रिम संवेदन हैं सारे छली औपचारिकता केवल
तात्कालिक सहयात्री भर हैं कोई सच्चा मित्र नहीं है।
                                     -चन्द्रसेन विराट

जहाँ उपर्युक्त शेअर में मित्र के औपचारिक व्यवहार से पीड़ित व्यक्ति की संवेदना को अभिव्यक्त किया गया है, वहीं स्वार्थी मित्रों के चापलूसी पूर्ण व्यवहार से पीड़ित व्यक्ति की व्यैक्तिक संवेदना की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों मे हुई है जैसे-

               दोस्तों से राय लेना व्यर्थ लगता है मुझे
दोस्त मुझको राय देते हैं मेरा स्वर देखकर।
                                      -जहीर कुरेशी

ऐसे स्वार्थी मित्रों से घिरे व्यक्ति की अकेलेपन की पीड़ा उस समय और बढ़ जाती
है जबकि व्यक्ति बीमार होता है या किसी परेशानी से घिरा होता है और उसके स्वार्थी मित्र जो कि सुख के समय हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं दुःख के समय हाल पूछने की औपचारिकता भी नहीं निभाते हैं. ऐसी अवस्था में उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदना की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजल में हुई है जैसे-

हम पड़े बीमार तो सब दोस्त अपने गुम हुये
एक हम ही हैं स्वयं तीमारदारी के लिये।
                              -चन्द्रसेन विराट

कुछ स्वार्थी मित्र अपना मतलब निकल जाने के बाद दोस्त को अपना दुश्मन ही बना डालते हैं. ऐसी परिस्थिति मे उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदना की अभिव्यक्ति प्रस्तुत शेअर में हुई है-

मैं जिसके हाथ में एक फूल दे के आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।
                               -कृष्ण बिहारी नूर

भौतिक युग में मानव अधिक व्यस्त रहने लगा है और मानव मन की कोमल संवेदनायें( ममता, प्यार, दुलार, करूणा) लुप्तप्राय होती जा रही है क्योंकि यांत्रिक युग में मानव स्वयं एक मशीन की तरह बन गया है-

यह मनुष्य या हाड़-माँस का रोबोट एक मशीन मात्र है
सूखी आँखों में करूणा का पारावार कहाँ से लाऊँ।
                                  -चन्द्रसेन विराट

इस मशीनीकरण के कारण मन में कुंठायें, भय, संत्रास जैसी मानसिक व्याधियाँ 
जन्म ले लेती हैं. टूटन, घुटन, भय जैसी मानसिक व्याधियों के कारण उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में हुई है जैसे-

किसी बैलून की मानिन्द भर गया हूँ मैं
सुई को देखकर यारों सिहर गया हूँ मैं।
                                 -ज्ञान प्रकाश विवेक

उपर्युक्त शेअर में व्यक्ति की भययुक्त मानसिक अवस्था की अभिव्यक्ति हुई है. वहीं कुछ हिन्दी गजलों के अंश में भय और संत्रास से भरी स्थिति में व्यक्ति की आत्मविश्लेषित अवस्था की भी अभिव्यक्ति हुई है जैसे-

सब गमों से उबर गया हूँ मैं
अपने अन्दर उतर गया हूँ मैं।
मुझको अहसास ही नहीं इसका
मैं हूँ जिन्दा कि मर गया हूँ मैं।
आइने में ये अक्स किसका है
देखकर किसको डर गया हूँ मैं।
                          -विजय कुमार सिंघल

जाने किसकी साजिश थी ये
मुझको मुझसे ही न मिलाया।
इक दिन मेरी खामोशी ने
मेरे भीतर शोर मचाया।
                -विज्ञान व्रत


हाँ वो सूरज है मगर मैं भी उससे कम नहीं,
रोज निकलूँ हूँ सुबह को, शाम को डूबूं हूँ मैं।
                                -राजगोपाल सिंह

आँखों से देखता हूँ मगर बोलता नहीं
गूंगा बना गया है कोई हादसा मुझे।
                                -लक्ष्मी सुमन

मानसिक व्याधियों से घिरे व्यक्ति की विक्षिप्त सी अवस्था की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में हुई है जैसे-

मैंने घर के आइने सब तोड़ डाले जानकर,
अब मेरा चेहरा न मुझको भूलकर भरमायेगा।
मैंने घर से नाम की तख्ती को भी हटवा दिया
अब न मेरे घर पे कोई बेबजह आ पायेगा।
                                  -डॉ0 वीरेन्द्र शर्मा

किसी कमरे में रोया था किसी में मुस्कराया था
अकेलेपन से मैंने इस कदर रिश्ता निभाया था।
                                       -ज्ञान प्रकाश विवेक

मैं आप अपनी खामोशी की गूँज में गुम था
मुझे ख्याल नहीं, किस ने क्या कहा मुझको।
                                  -मख्मूर सईदी


मानसिक व्याधियों से घिरा व्यक्ति मरने की चाह रखता है. हिन्दी गजलों में व्यक्ति की इस संवेदना की अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती है जैसे-

इस घुटन से तो बेहतर है कि बेघर कर दे
जिस्म की कैद से अब रूह को बाहर कर दे।
                              -राम प्रकाश गोयल

खुदकुशी का बेखुदी तक में ख्याल आता रहा
पर कभी कोई, कभी कोई सवाल आता रहा।
                                    -बाल स्वरूप राही

उपर्युक्त शेअरों में व्यक्ति की विक्षिप्त अवस्था में मरने की चाह की अभिव्यक्ति हुई है.

कुछ व्यक्तिगत पीड़ायें ऐसी होती हैं जो कि व्यक्ति के द्वारा स्वयं उत्पन्न की जाती हैं और उनसे उबरना उसके लिये स्वयं मुश्किल हो जाता है जैसे कि किसी व्यक्ति को अपने यश का या अपने धन का या अपने रूप का या अपने पद का अभिमान हो जाता है तो वह व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है और अपने सामने किसी अन्य व्यक्ति को महत्व नहीं देता है. ऐसे विवेकशून्य व्यक्ति के मन में भी
धीरे-धीरे अनेक कुंठायें जन्म ले लेती हैं. अहम् की पीड़ा से उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में हुई है जैसे-

मैं किसका हो पाता? मेरे अभिमानों ने
जग क्या अपना भी होने ना दिया मुझको।
                                 -चन्द्रसेन विराट

मुझमें मुझसे कौन बड़ा था
मेरा मुझसे ये झगड़ा था।

जीत न पाया मैं खुद मैं को
वरना खुद से बहुत लड़ा था।
                     -विज्ञान व्रत

क्या कहूँ अपने अहं की आज तक मेरे सिवा
मिल न पाया दूसरा मुझसे अधिक मानी मुझे।
कौन जाने अब यहाँ से भी कहां ले जायेगी
उम्र की भटकन, ह्रदय की ऊब, वीरानी मुझे।
                               -चन्द्रसेन विराट

ह्रदय की ऊब और वीरानी व्यक्ति की जिंदगी को बोझ बना देती है जिसे वह जीवन के अंत तक ढ़ोता ही रहता है-

ढ़ो रहा है आदमी काँधे पे खुद अपनी सलीब
जिंदगी का फलसफा अब बोझ ढ़ोना हो गया।
                                   -अदम गोंडवी

अपनी जिंदगी का बोझ ढ़ोता रहे, किंतु दुनिया के सामने उपहास का पात्र न बने, इस कारण झूठी मुस्कान लिये जीने की दोहरी मानसिक पीड़ा की अभिव्यक्ति भी विविध प्रकार से की गयी है जैसे-

बाहर निकलूँ तो चेहरे पर
एक तबस्सुम भी चिपका लूँ।
                  -विज्ञान व्रत

खुलकर हँस न सके कभी खुलकर रो न सके
बेकार हमको कर गयी बेकार की तहजीब।
                          -विजय कुमार सिंघल 

खुद को पहचानने खोई हुई पहचानों में
हम भी लाये हैं कई हौसले मुस्कानों में।
                        -डॉ0 शेरजंग गर्ग  

उपरोक्त शेअरों में जहाँ मुस्कुराते हुये जीने की व्यक्ति की विवशता झलकती है, वहीं हिन्दी गजलों में कुछ उदाहरण ऐसे भी देखने को मिलते हैं जिनमें व्यक्ति अपने दुःखों को सहर्ष स्वीकार करता है और दुनिया के दुःख दर्द में मशगूल रहता है जैसे-

अब चुभन जिंदगी का मजा बन गई
पीर इतनी बढ़ी कि दवा बन गई।
                       -माधव मधुकर

अलग अपने से जितना हो रहा हँ
जमाने भर का उतना हो रहा हूँ।

खुदी को जितना-जितना खूँदता हूँ
खुदी के पास उतना हो रहा हूँ।
                          -डॉ0 जीवन प्रकाश जोशी

जो व्यक्ति दूसरे के दुःखों में शामिल रहते हैं अर्थात् दूसरे के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं वे न केवल दूसरों को खुशी प्रदान करते हैं वरन् स्वयं भी अपने चारों ओर बहारों को खिलते पाते हैं. तभी तो शायरा ने अपनी गजल में कहा है-

किसी के दर्द को अपना बना के देखो तो
सजोगे तुम भी कोई दिल सजा के देखो तो।
खिलेंगे  फूल  बहारें  भी  मुस्करायेंगी
तुम अपने अश्क का दरिया बहा के देखो तो।
तुम्हारे दिल में भी कुछ दीप जगमगायेंगे
किसी के दिल से अँधेरा हटा के देखो तो।
हर एक चेहरे में चेहरा उसी का चमकेगा
रमा नकाब को इक पल उठा के देखो तो।
                                     -डॉ0 रमा सिंह

ऐसे ही कुछ और हिन्दी गजलों के उदाहरण देखने को मिलते हैं जिनमें हिन्दी
भाषी गजलकारों ने अपनी गजलों के माध्यम से व्यक्ति की मानसिक व्याधियों को दूर करने का प्रयत्न किया है जैसे-

क्यों घुटन, नैराश्य, कुंठा, त्रास की बातें करें
एक तिनका ही सही, विश्वास की बातें करें।
खौफ के बादल हटें हर स्वप्नदर्शी आँख से
इन्द्रधनुषी रंग की, मधुमास की बातें करें।
दर्द तो है दर्द इसकी जात क्या पहचान क्या
हर किसी के दर्द के एहसास की बातें करें।
                                -राजेन्द्र तिवारी

प्रेम में विरह की अवस्था से जुड़ी व्यैक्तिक संवेदनाओं को भी हिन्दी गजलों में अभिव्यक्ति मिली है. विरह में प्रेमी दिलों का अन्तरतम तक तड़प उठता है और विरही जड़ सा हो जाता है उसे अपने प्रेमी या प्रेमिका की याद के सिवा कुछ भी सूझता ही नहीं, ऐसी ही जड अवस्था की अभिव्यक्ति हिन्दी गजलों के प्रस्तुत अंशों में देखने को मिलती है-

तुम न गुजरोगे इधर से ये सही है लेकिन
तुमने करने को कहा इन्तजार बैठे हैं।
                             -बाल स्वरूप राही 

मैं तो अपने कमरे में तेरे ध्यान में गुम था
घर के लोग कहते हैं सारा घर महकता था।
                                 -कृष्ण बिहारी नूर

सर्द रातों में भी चलते रहे दरिया-दरिया
                                      तेरी यादों को लपेटे हुये कम्बल की तरह।
                                   -सुरेश कुमार

विरह में व्यक्ति की उन्मादित अवस्था में उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में हुई है जैसे-

आओ! अपने जख्मों पर जश्न ही मना डालें
दर्दो गम पै रो लेना ये चलन पुराना है।
                                   -रंजना अग्रवाल

मूँदकर पलकें अगर बैठा तो मुझमें ऐ कुँअर
कौन था जो चुपके-चपके डोलता-फिरता रहा।
                                 -डॉ0 कुँअर बेचैन

जब भी कोई तन्हाई में मुझसे मिलने आया था
आँखों से आँसू छलक पड़े, दिल जाने क्यों घबराता था।
                                        -देवेन्द्र माँझी

विविध कारणों से उत्पन्न व्यैक्तिक संवेदनाओं के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति हिन्दी गजलों में हुई है. वास्तव में यही व्यैक्तिक संवेदना कवि-मन की वास्तविक दौलत है. जब व्यक्ति अन्दर से बिल्कुल टूट जाता है और आँखों के आगे उसे जिंदगी की कोई राह नजर नहीं आती, वह हताश हो जाता है; वहीं कुछ शब्द उसके मन में सुगबुगाने लगते हैं और पंक्तिबद्ध हो कागज पर उतर आते हैं. साथ ही कवि धीरे-धीरे व्यैक्तिक संवेदनाओं से आगे निकल पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आदि संवेदनाओं को भी अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य पा लेता है. जैसा कि शायर ने प्रस्तुत शेअर में कहा है-

गजलें मेरी हुई हैं तो यूँ ही नहीं हुईं
पूछो उन्हीं से किस तरह रोना पड़ा मुझे।
                              -डॉ0 कुँअर बेचैन




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