Monday, March 20, 2017


हिन्दी गजलों में पर्यावरण प्रदूषण की अभिव्यक्ति

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

आधुनिक समय में पर्यावरण प्रदूषण हमारे देश व समाज की प्रमुख समस्याओं में से एक है. जनसंख्या बढ़ोत्तरी व औद्योगीकरण के कारण  उत्पन्न प्रदूषण की समस्या को हिन्दी भाषी गजलकारों ने हिन्दी गजलों में अभिव्यक्त किया है. जनसंख्या बढ़ोत्तरी के कारण भवन निर्माण का कार्य भी बढ़ा है, भवन निर्माण के लिये, ईंधन के लिये दिन-प्रतिदिन पेड़ों के कटने की संख्या बढ़ती जा रही है. पेड़ों और जंगलों के कटने से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है जैसा कि प्रस्तुत शेअरों में कहा गया है-

          इसलिए ऋतुएं खफा हैं
          पेड़ कटते जा रहे हैं। 
                          - राजगोपाल सिंह

          आपने खुद ही पुकारा है चिलकती धूप को
          लोग पहले काटते थे नीम या पीपल कहीं।
                                     - राजगोपाल सिंह

क्योंकि पेड़ कटने के कारण ऋतुएं खफा हो गयी हैं राहगीर को छाया नहीं मिल पाती , इसलिए शायर ने अपने स्वार्थ के लिए पेड़ काटने वाले व्यक्ति को सचेत करते हुए प्रस्तुत शेअर में कहा है-

          मांगने से पहले कुछ भी, सोच लो फिर माँगना।
          एक चौखट के लिए क्या पेड़ कटवाओगे।। 
                                       -राजगोपाल सिंह

ऐसे ही अन्य शेअरों में जंगलों की कटाई से उत्पन्न संवेदना को अभिव्यक्त किया गया है-

          पेड़ कटता कोई नजर आया,
          दिल घने जंगलों का भर आया।

-    मख्मूर सईदी

           जिसके जब जी में आता है लगता वही गिराने पेड़,
          तुम्हीं बताओ आखिर किसको जायें जख्म दिखाने पेड़।
          इक अरसे से मन का आँगन हरी घास को तरस गया।
          सिर्फ वही पिछली यादों के जर्जर, जर्द, पुराने पेड़।

                                           माधव कौशिक

औद्योगीकरण के कारण उत्पन्न प्रदूषण की समस्या की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में हुई है जैसे- प्रस्तुत शेअरों में कहा गया है-

     चाँदनी को डस गया, शहरों से उठता ये धुआँ,
     और हवा रोती मिली, रातों के बंजर खेत में।

                                  कु0 मीनाक्षी

          डीजल की बू में फूल एक,
          धीरे-धीरे लापता हुआ।
                        सूर्यभानु गुप्त

अंधाधुंध उद्योगों के लगने के कारण प्रकृति की अनुपम भेंट चाँदनी की छाया, पुरवा हवा के झोंके  सब लुप्तप्राय होते जा रहे हैं. सारा ही प्राकृतिक वातावरण दूषित होता जा रहा है ना कहीं शुद्ध जल है और ना ही शुद्ध वायु. इसी संवेदना से जुड़े हैं प्रस्तुत गजलों के अंश-

          मिल की चिमनी का धुआँ, हर खेत पर छाने लगा।
          अब शहर वाला प्रदूषण, गाँव तक आने लगा।।
          गाँव के नालों, नदी के नीर में बहता हुआ।
          शहर के कारखानों का जहर जाने लगा।।
          अब कहाँ निर्मल हवा, वातावरण वह शुद्ध सा।
          गाँव का दूषित गगन ही राख बरसाने लगा।।

                                      चन्द्रसेन विराट

          चिमनियों से बिखर गया होगा,
          धमनियों में जहर गया होगा।

                                  डॉ0 महेन्द्र कुमार अग्रवाल

औद्योगीकरण ने जहाँ प्रकृति को प्रदूषित किया है, वहीं हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन को सुख-सुविधाओं से भर दिया है और हम भौतिक सुविधाओं के इतने आदी हो चुके हैं कि इनके बिना हमारा जीवन अपाहिज जैसा हो जाता है किन्तु फिर भी हमें समय रहते स्वस्थ पर्यावरण की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है.

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