Saturday, April 15, 2017


मधुर-मिलन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग
प्रियतमाः
प्रिय! दो बाहों के जो हार मिलें,
क्यूँ मुक्ताओं के हार गल छुयें?

प्रिय! कलाई जो थामे रहें, दो हाथ,
क्यूँ काँचों को पिरोऊँ बाहों में?

प्रिय! मूरत जो यह रहे सामने,
क्यूँ नयनों में काजल राचूँ?

प्रिय! बाल जो यूँ ही रहें सँवरते,
क्यूँ कर वेणी बाँधू इनकी?

प्रिय! जो यूँ ही मिलते रहें चुंबन,
क्यूँ कर लाली अधर औ गात छुयें?

प्रिय! दो नयन अगर दर्पण बनें,
क्यूँ कर उस दर्पण को छुयें?

प्रिय! तुम्हारी छाया रहे जो साथ,
क्यूँ कर कोई आसमाँ ढ़ूँढ़ें?

प्रिय! पाती रहूँ जो पदरज तुमरी,
सदा जो सजाये माँग औ माथ मेरा.

प्रिय! पाती रहूँ जो गंध इस तन की,
क्यूँ कर वन-वन डोलूँ बेसुध?

प्रियतमः

प्रिये! बसन्ती बेला है छायी
अवनि पर छाया चन्द्रालोक
ऐसे में सजी है नैय्या
मधुर-मिलन की यह बेला।

प्रिये! पर दुःख यही मुझको, कि
यह बेला खिली है सान्ध्य बेला में
पर रहो निश्चिंत प्रिये!
यह अमर रहेगी जग में सदा
हर रात खिलेगी, हर सुबह फूटेगी
हर दिशा महकेगी, हर पवन लूटेगी।

प्रिय! बहुत कम है समय, इस मिलन का.
आओ! अन्तिम बार श्रृंगार कर दूँ स्वयं.
मुक्ताओं के हार पहना दूँ गले में,
हरे काँच की चूड़ियाँ कोमल वलयों में,
कानों में कर्ण फूल सजा दूँ औ'
पगों में बाँध दूँ नुपूर इतने.
आँखों में आँच रो काजल जरा.
माथ पर सजा लो बिंदिया जरा.
माँग में भर लो सिंदूर जरा,
अधरों पर लगा लो लाली जरा.

प्रिय! समझना ना बंधन इन्हें,
बस पा लेना प्रतिरूप मेरा
जब वीर बन युद्ध करूँ,
भूमि पर छितराये बादल दूर करूँ.
मुक्ताओं के हार को समझना
बाहों के हार हैं पहने हुये हैं.
काँचों की चूड़ियों को समझना
हाथ थाम हुआ है मैंने तुम्हारा.
नयनों का ये काजल, काजल नहीं
है रंग ही रंग गया मेरा.

माथे पर सजाती रहना बिंदिया सदा,
जैसी छवि अंकित हो ह्रदय में.
नित वेणी में सजाती रहना फूल,
पाने को मेरे तन की खुशबू.
अधरों पर लगाती रहना लाली,
जितना चाहो चुंबन पाओ.

प्रियतमाः

आह! प्रिय जगाया है तुमने,
एक नई राह दिखायी है तुमने.
फिर क्यूँ कर विलास में पड़ी रहूँ,
फिर क्यूँ कर में सजी फिरूँ.
नहीं हूँ, यद्यपि क्षत्रप-तनया, किन्तु
बनी हूँ एक क्षत्रप की प्रिया.

प्रिय! बंधन हैं सब स्वीकार मुझे,
जैसे भी तुम चाहो बाँधों.
मैं तो बँध चुकी पहले ही,
अब और क्या मुझको बाधेंगें.
हैं सभी तुच्छ उसके आगे,
जो बाँधा है मैंने आगे.
वो है ऐसा प्यारा बंधऩ,
जो होता लौह से भी कठोर
मृणाल से भी नाजुक.

उस बंधन की खातिर कहती,
छाया मुझे बना लो अपनी.
जिस कर्म में भी तुम रमो,
उसमें हाथ लगा दू जरा.

प्रियतमः

मत अधीर हो प्रिय इतना,
कब छोड़ तुम्हें जा पाऊँगा,
है छोड़ जाना अपने को ही.
ले जाता हूँ तुम्हारी शक्ति
मिट्टी के खाली पात्र में.

प्रिय! रहना तुम यहीं वीर बन
नव पथ पर अग्रसर होना नव कुसुम खिलाने
जिस भूमि को मरूस्थल बनाने जा रहे हैं,
वहाँ प्यार की गंगा बहाना.
देशभक्त  बनना, देश को सुन्दर बनाकर.

अमर शहीद मैं हो जाऊँ
मत सती होना,
ना बैठना अश्रु बहाने.
अपने विरह-ताप के अश्रुओं से
नव-नव-नव अंकुर उगाना
औरों के जख्मों को भरकर
जग के सामने रखना
नव सती का आदर्श.

आओ! इस मधुर बेला में,
हाथ में हाथ मिला
एक-दूजे के मस्तक छुवा
यह प्रण करें हम.

होगा अमर प्रेम अपना,
पाकर वही पुरस्कार अपना.

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