Monday, April 3, 2017


गर्मी की छुट्टियाँ.......

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

गर्मी की छुट्टियाँ यानि घर-घर समर कैम्प............

सत्तर के दशक में कॉन्वेंट स्कूलों की बाढ़ नहीं आयी थी, सभी बच्चे हिन्दी मीडियम स्कूलों में पढ़ते थे. 20 मई को रिजल्ट आने के बाद 7-8 जुलाई तक की गर्मी की छुट्टियाँ हो जाती थीं. पुरानी किताबों से पीछा छूटता था और नयी किताबों के आने में लगभग दो महीने का समय रहता था. तब तक बिल्कुल फ्री; चाहे जो मन हो करो, जहाँ मर्जी घूमो.

कुछ दिन नानी के यहाँ जाना होता था, वहाँ पहले से मौसी आई हुई हैं उनके बच्चे हैं, मामा के बच्चे हैं. एक साथ घर में पंद्ह-बीस बच्चों का जमघट. दिनभर साथ खेलना, खाना, लड़ना-झगड़ना और फिर दोस्ती करना. कुछ नया सीखने को मिलता था औऱ कुछ दूसरों को सिखाने का मौका.

आज की तरह सत्तर के दशक में घर-घर हॉबी क्लीसिज लगनी शुरू नहीं थीं किन्तु एक-दूसरे से कुछ ना कुछ नया सीखने को मिलता ही था. स्कूलों में कागज पर ड्राइंग करते ही हैं लेकिन जब फेब्रिक कलर का पता चला तो छुट्टियों में फेब्रिक पेंटिंग का भी शौक शुरू हो गया. दादी, नानी से रात को किस्से-कहानी सुनने में भी बहुत आनंद आता था. बुआजी बम्बई से आई हैं उनसे भेलपूरी सीख कर बनाने में बहुत आनंद आया. हम अरवे-चने तो खाते ही थे उसमें नमकीन मिला, प्याज-आलू मिला, खट्टी-मीठी चटनी मिला, भेलपूरी बनाने में बहुत आनंद आने लगा.

वास्तव में तब दस महीने की पढ़ाई के बाद बच्चों को तरोताजा होने का, रूटीन पढ़ाई से छुट्टी मिलने का भरपूर मौका मिलता था, अपनी सोच, अपना शौक विकसित करने का पूरा मौका मिलता था. आज की तरह नहीं कि स्कूल बंद हुये नहीं कि बच्चों की हॉबी क्लासिज शुरू. सुबह दो घंटे डांस क्लास जाना है, शाम को पेंटिंग क्लास जाना है. बचे हुये समय में स्कूल से मिला होमवर्क करना है, उसके लिये कोचिंग क्लास जाना है. बस एक जगह से दूसरी जगह भागम-भाग..............

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