एक बार आ जाओ कान्हा!
मैं राधा नहीं, ना ही कोई गोपी।
फिर भी अपनी चरण-रज बना लो कान्हा!
भूल से चंदन समझ, मस्तक पे लगा लो कान्हा!
डॉ. मंजूश्री गर्ग
श्री कृष्ण-राधा प्रेम-प्रसंग
डॉ. मंजूश्री गर्ग
श्री कृष्ण जब
लगभग पाँच वर्ष के थे, तो उनके
माता-पिता यशोदा और नंद बाबा कंस के अत्याचारों से तंग आकर अन्य गोप-गोपिकाओं के
साथ गोकुल छोड़कर वृंदावन में आ बसे. वृंदावन में बहुत ही सुंदर वन थे, छोटी-छोटी गलियाँ थीं, पास ही यमुना नदी
बहती थी. वृंदावन के पास ही बरसाने गाँव था, जहाँ बृषभानु और
कीर्ति की पुत्री राधारानी रहती थी. राधारानी प्रायः अपनी सखियों के संग खेलने के
लिये वृंदावन आती थी. श्री कृष्ण की नटखट शरारतें; जैसे---माखन
चोरी, मटकी फोड़ना, आदि आस-पास के
गाँवों में चर्चा के विषय बने हुये थे. राधा के मन में भी कान्हा को देखने की
जिज्ञासा थी.
एक बार श्रीकृष्ण पीताम्बर पहने, पटुका कमर में बाँधे, मोर-मुकुट धारण
किये यमुना तट पर अपने सखाओं के साथ खेल रहे थे. तभी राधारानी जिनकी आयु लगभग आठ
बरस की होगी, अपनी सखियों के साथ यमुना तट पर स्नान करने
आयीं. श्री कृष्ण और राधा की परस्पर आँखें मिलीं और दोनों एक दूसरे को देखते ही
रहे. दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रीति जाग उठी. तब बाँके बिहारी ने
हँसकर राधा से उनका नाम पूछा----‘हे सुंदरी! तुम कौन हो,
तुम्हारा नाम क्या है और किसकी पुत्री हो? तुम्हें
पहले तो यहाँ नहीं देखा.’तब श्री कृष्ण के प्रेम भरे
प्रश्नों को सुनकर राधारानी ने उत्तर दिया, ‘ मैं
वृषभानु-कीर्ति की पुत्री राधा हूँ, पास के गाँव बरसाने में
रहती हूँ और प्रायः अपनी सखियों के साथ यहाँ आया करती हूँ. मैंने बहुत दिनों से
नंदजी के बेटे के बारे में सुन रक्खा था कि वे बड़े ही नटखट हैं, माखन चुराते हैं तो लगता है वो तुम्हीं हो.’तब श्री
कृष्ण ने हँसते हुये कहा, ‘परंतु मैंने तुम्हारा तो कुछ
सामान चोरी नहीं किया. आओ! हमसे मित्रता कर लो, दोनों
साथ-साथ खेलेंगे.’राधारानी अंतःकरण में श्री कृष्ण की बातों
से मोहित हो रही थीं, उन्होंने श्री कृष्ण से कहा, ‘अब देर हो रही है, हमें घर वापस जाना है. तुम सायं
हमारे यहाँ गाय दुहने आ जाना.’ जब श्री कृष्ण राधा के यहाँ
गाय दुहने गये तो वहाँ एकांत में राधा और कृष्ण ने प्रेमपूर्वक बातें की.
दिन-प्रतिदिन राधा और कृष्ण किसी ना किसी बहाने एक-दूसरे से मिलने लगे. कभी
वृंदावन में तो कभी बरसाने में. दोनों की परस्पर प्रीति देखकर सभी ब्रजवासी बहुत
सुख पाते थे.
जब श्री कृष्ण मुरली बजाते थे , तो राधा मंत्र-मुग्ध सी मुरली की धुन में खो जाती थीं.
कभी-कभी राधा को लगता था कि कान्हा मुझसे ज्यादा बाँसुरी से प्रेम करते हैं. लेकिन
यदि कुछ समय कान्हा बाँसुरी नहीं बजाते थे तो राधा बेचैन हो जाती थीं. सावन के
महीने में ब्रज में जगह-जगह झूले पड़ जाते थे. जहाँ राधा-कृष्ण प्रेम- पूर्वक झूला
झूलते थे. सखियाँ उन्हें झूला झूलाने में आनंद का अनुभव करती थीं. कभी कृष्ण स्वयं
फूल तोड़्कर राधा का फूलों से श्रंगार करते, कभी राधा अन्य
सखियों के साथ मिल कान्हा का सखी रूप में श्रंगार करतीं. एक बार श्री कृष्ण ने शरद
पूर्णिमा की रात को ‘महारास’ का आयोजन
किया और अन्य गोपियों के साथ कृष्ण और राधा ने महारास में आनंद मग्न होकर नृत्य
किया.
एक बार श्री कृष्ण अन्य गोपियों के साथ राधा को
अपने घर ले गये. नंद बाबा और यशोदा राधा से मिलकर बहुत प्रसन्न हुये. विदा करते
समय यशोदा ने राधा को उपहार भी दिये. ऐसे ही एक बार जब श्री कृष्ण राधा के घर गये
तो बृषभानु और कीर्ति ने उनका हार्दिक स्वागत किया और भेंट आदि देकर विदा किया.
वास्तव में राधा और कृष्ण के माता-पिता ही नहीं, वरन सभी ब्रजवासी हृदय से चाहते थे कि कृष्ण और राधा की जोड़ी बहुत ही
मनोरम है. दोनों का विवाह एक-दूसरे से होना ही चाहिये. किंतु विधाता को कुछ और खेल
खेलना था.
एक दिन कंस ने अक्रूर के द्वारा बलराम और श्री
कृष्ण को मथुरा बुलाया. कृष्ण और बलराम का मथुरा जाने का समाचार सुनकर नंद-यशोदा
ही नहीं, सब गोपियाँ व ग्वाले विरह सागर में डूब
गये. गोपियों ने श्री कृष्ण को रोकने के बहुत प्रयत्न किये, लेकिन
श्री कृष्ण कहाँ रूकने वाले थे उन्हें तो आगे अनेक लीलायें करनी थी. तब सब गोपियों
ने मिलकर राधा से कहा, “राधा रानी! तुम यदि श्री कृष्ण को
रोकोगी, तो वो अवश्य रूक जायेंगे. तुम्हारी बात तो नहीं टाल
सकते.” तब राधा ने कहा, “श्री कृष्ण का कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा
है. मैं उनके कर्मक्षेत्र की बाधा नहीं शक्ति हूँ. वो जहाँ भी रहें मुझसे अलग नहीं
हो सकते. मेरे रोम-रोम में श्री कृष्ण बसे हैं, जब भी दर्पण
देखती हूँ तो नयनों में श्री कृष्ण की ही मूरत दिखाई देती है. चाँद की चाँदनी तो
सारी पृथ्वी पर फैलती है, हमारा आँचल जितना बड़ा होता है उतनी
ही हमें मिलती है. इसी तरह श्री कृष्ण का प्रेम फलक बहुत विस्तृत है, हमारे आँचल में जितना आना था आ गया.” इस तरह राधा ने न तो श्री कृष्ण को
गोपियों की तरह रोका, न टोका, बस एक टक
श्री कृष्ण के रथ को जाता हुआ देखती रहीं. तब श्री कृष्ण ने अक्रूर से रथ रोकने के
लिये कहा और राधा से मिलने आये. श्री कृष्ण का मन भी राधा से दूर जाने पर विचलित
हो रहा था. दोनों के गले रूँधे हुये थे. श्री कृष्ण और राधा एक-दूसरे से कुछ भी
नहीं कह पाये बस एक दूसरे को निहारते रहे; फिर जाते समय श्री
कृष्ण ने अपनी मुरली राधा को दे दी. राधा ने मुरली अपने हृदय से लगा ली.
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श्रीकृष्ण और रूक्मिणी जी का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
रूक्मिणी कुण्डिनपुर के
राजा भीष्मक की पुत्री थीं, उनके पाँच भाई थे. एक दिन नारद जी कुण्डिनपुर गये तो
राजा के कहने पर रूक्मिणी का हाथ देखकर कहा कि, “यह कन्या अत्यन्त भाग्यशाली, सर्वगुण सम्पन्न है, इसका विवाह परमब्रह्म
परमेश्वर से होगा”. यह जानकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई. एक बार कुछ याचक
गण कुण्डिनपुर में जाकर श्री कृष्ण चरित्र का गान करने लगे. राजा भीष्मक ने उन्हें
महल में बुला लिया, वहाँ रूक्मिणी ने भी वह सुना, उनके मन में श्री कृष्ण के प्रति
प्रेम उत्पन्न हो गया. इसी प्रकार एक बार नारद जी ने द्वारिका में जाकर श्री कृष्ण
से रूक्मिणी के गुणों का वर्णन किया, तो श्री कृष्ण के मन में भी रूक्मिणी के
प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया. रूक्मिणी तो दिन-रात श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न
रहने लगीं और पार्वती जी का पूजन कर श्री श्याम सुन्दर को पति रूप में प्राप्त
करने का वर माँगने लगीं. रूक्मिणी ने यह प्रण लिया कि मैं मनमोहन के अतिरिक्त किसी
अन्य से विवाह नहीं करूँगी. रूक्मिणी के इस निर्णय से उनके माता-पिता भी सन्तुष्ट
थे.
एक बार राजा भीष्मक ने राज सभा में रूक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण
के साथ होने का प्रस्ताव रखा, किन्तु उनके बड़े पुत्र रूक्माग्रज ने इस पर बड़ा
विरोध प्रकट करते हुये कहा, “उस गँवार
ग्वाले(श्री कृष्ण) की जाति-पाँति का कुछ पता नहीं, अभी कुछ दिनों से बढ़ गये हैं
तो भी उनकी गणना श्रेष्ठ कुल में नहीं होती. राजन् आप रूक्मिणी का विवाह चँदेरी के
राजा शिशुपाल के साथ करिये”. यद्यपि रूक्मेश, आदि अन्य
भाई, सभासद राजा के मत से ही सहमत थे, लेकिन रूक्माग्रज के आगे एक न चली और उसने
ज्योतिषियों से शुभलग्न पूछकर एक ब्राह्मण के हाथ टीका शिशुपाल को भेज दिया.
जब रूक्मिणी को ज्ञात हुआ कि रूक्माग्रज ने राजा का विरोध कर उसकी लगन शिशुपाल के यहाँ भेज दी है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. वह मन में विचार करने लगीं कि मैं तो अन्तःकरण से श्री कृष्ण को अपना पति मान चुकी हुँ अब किसी ओर को अपना पति कैसे मानूँगी. बहुत सोच विचार कर रूक्मिणी ने एक पत्र श्रीकृष्ण ने नाम लिखा, “हे देव! मैं मन, वचन और कर्म से आपको अपना पति मान चुकी हुँ. किसी अन्य के लिये मेरे ह्रदय में स्थान नहीं है. मेरा बड़ा भाई रूक्माग्रज मेरा विवाह शिशुपाल से करवाने जा रहा है, उसका विरोध करने में मेरे पिता व अन्य सभासद असमर्थ हैं. अतः आपसे निवेदन है कि आप विवाह से एक दिन पूर्व आकर मेरी लाज रख लें. जब मैं देवी जी की पूजा करने नगर से बाहर जाऊँगी , तब वहाँ से आप मुझे अपने साथ ले जाइयेगा. आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे. आपके चरणों की दासी- रूक्मिणी” और एक बुद्धिमान ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण के पास द्वारिका भेज दिया.1.
श्री कृष्ण को पत्र देते
हुये ब्राह्मण ने भी श्री कृष्ण से कहा कि “हे दया सिन्धु! कुण्डिनपुर की
राजकुमारी दिन-रात तुम्हारा ध्यान रखती हैं, उसके भाई रूकमाग्रज ने सबका विरोध कर
उसकी सगाई शिशुपाल से कर दी है किन्तु रूक्मिणी मन, वचन, कर्म से आपके साथ ही
विवाह करने का संकल्प कर चुकी हैं. अतः आप शीघ्र से शीघ्र कुण्डिनपुर चलने की कृपा
कीजिये”. श्री कृष्ण ने ध्यान से ब्राह्मण के वचन सुने और रूक्मिणी
द्वारा भेजा पत्र भी पढ़ा. पत्र पढ़कर श्री कृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुये और एकान्त
में ले जाकर ब्राह्मण से कहा कि- “हे ब्राह्मण देवता! जब से नारद जी
से रूक्मिणी के रूप, गुणों को सुना है, तब से मैं भी उससे प्रेम करने लगा हुँ. अभी
आप विश्राम करिये, सुबह हम दोनों कुण्डिनपुर चलेंगे.”
प्रातः काल होने पर श्री
कृष्ण ने दारूक सारथि से रथ मँगवाया और ब्राह्मण के साथ कुण्डिनपुर को चल दिये.
पीछे बलराम जी सेना सहित श्री कृष्ण की सहायता के लिये आ गये. कुण्डिनपुर पहुँच कर
श्री कृष्ण राजा भीष्मक के बाग में ठहर गये. ब्राह्मण के मुख से श्री कृष्ण के आने
का समाचार सुनकर रूक्मिणी अत्यन्त प्रसन्न हुईं. राजा भीष्मक को भी जब श्री कृष्ण
के आने का समाचार मिला तो वह भी अत्यन्त प्रसन्न हुये और अपने चारों छोटे पुत्रों
के साथ रत्नाभूषणादि लेकर श्री कृष्ण से मिलने बाग में पहुँचे. राजा भीष्मक ने मन
का सब हाल श्री कृष्ण से कह दिया कि किस तरह रूक्माग्रज के सामने वह विवश हैं.
शिशुपाल भी बारात लेकर कुण्डिनपुर पहुँच गया, उसको जनवासे में ठहराया गया और राजा
ने उत्तमोत्तम पदार्थों के साथ बारात का स्वागत किया.
रुक्माग्रज को जब श्री कृष्ण और बलराम के आने का समाचार मिला तो वह
अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसे लगा कि पिता ने उन्हें बुलाया है, लेकिन राजा ने मना
कर दिया कि मैंने कृष्ण, बलराम को नहीं बुलाया. तब रूक्माग्रज ने शिशुपाल और
जरासन्ध के पास जाकर कहा कि यहाँ कृष्ण और बलराम भी आये हुये हैं, अतः अपने
सेनापतियों को सावधान कर दो.
विवाह के दिन रूक्मिणी अपनी सखियों के साथ गौरी पूजन के लिये नगर
के बाहर देवी मन्दिर के लिये चलीं. उस समय शिशुपाल ने अपने पचास हजार सैनिक भी
रूक्मिणी की रक्षा के लिये साथ भेज दिये. मन्दिर में पहुँचकर रूक्मिणी ने गौरी का
विधिपूर्वक पूजन किया और प्रार्थना की कि “हे गौरी माता! मैंने बचपन से
ही आपकी सेवा की है. आप मेरे मन की दशा जानती हैं. अतः आप ऐसा वरदान दें कि मुझे
मनवांछित वर प्राप्त हो.” पूजा, अर्चना
कर रूक्मिणी मन में श्याम सुन्दर से मिलने की आशा लिये मन्दिर से निकलीं. तभी
आनंदकंद श्री कृष्ण का रथ वहाँ आ गया. श्याम सुन्दर को देखकर रूक्मिणी व सखियाँ
अत्यन्त प्रसन्न हुईं. श्री कृष्ण ने रथ रूक्मिणी के बिल्कुल समीप ही खड़ा कर
दिया. जैसे ही रूक्मिणी ने लजाते हुये अपना हाथ बढ़ाया वैसे ही श्री कृष्ण ने
रूक्मिणी को अपने बायें हाथ से पकड़कर रथ में बैठा लिया और शंख बजाते हुये आगे बढ़
गये. शिशुपाल के सैनिक उन्हें देखते ही रह गये. श्री कृष्ण अपना रथ तीव्र गति से
द्वारिका की ओर ले जाने लगे. उन्होंने देखा कि रूक्मिणी कुछ घबरायी हुई हैं तब
उन्होंने रूक्मिणी से कहा, “हे रूक्मिणी! तुम चिंता न करो, मैं द्वारिका पहुँचकर तुमसे विधिवत विवाह
करूँगा”. यह कहकर अपने गले की माला रूक्मिणी को पहना दी.
जब रूक्माग्रज और शिशुपाल को ज्ञात हुआ कि श्री कृष्ण रूक्मिणी का हरण करके ले
गये हैं तो वे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ व जरासन्ध, दन्तवक्र, आदि राजा जो शिशुपाल
की बारात में आये हुये थे, श्री कृष्ण से युद्ध करने चल दिये. श्री कृष्ण-बलराम की
सेना व रूक्माग्रज, आदि की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ. श्री कृष्ण रूक्माग्रज
को मारने ही वाले थे कि रूक्मिणी के कहने पर उसे जीवन दान दे दिया. अन्य सेना को
भी तहस-नहस कर श्री कृष्ण और बलराम रूक्मिणी के साथ द्वारिका पहुँचे. वहाँ राजा
उग्रसेन और वसुदेव ने सब परिवार जनों के साथ उनकी अगवानी की और प्रसन्नतापूर्वक
राजमन्दिर में ले गये. वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्ग मुनि को बुलाकर शुभ लग्न
में श्री कृष्ण जी के साथ रूक्मिणी जी का विवाह करा दिया.
गोपी-चंदन
डॉ. मंजूश्री गर्ग
गोपियाँ मिलीं श्रीकृष्ण से
अंतिम बार द्वारिका में।
शिकवे कह भी ना पाईं
और देह चंदन हो गयी।
डॉ. मंजूश्री
गर्ग
श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के
बाद गोपियाँ श्रीकृष्ण के विरह में दिन-रात लीन रहने लगीं. ना उन्हें अपनी सुध रही
और ना परिवार की. दिन-प्रतिदिन कृशकाय होती गयीं. श्रीकृष्ण चाहकर भी मथुरा से
वापस वृन्दावन नहीं आ पाये, वरन् परिस्थिति वश उन्हें समुद्र में द्वारिकापुरी
बसानी पड़ी. एक बार सब वृन्दावनवासी कान्हा से मिलने द्वारिकापुरी गये, वहाँ
गोपियों की अति दयनीय दशा देखकर कान्हा
अश्रु-विह्वल हो गये. ना अपनी व्यथा कह पाये ना गोपियों की सुन पाये. अपनी योगमाया
से श्रीकृष्ण ने गोपियों को वहीं द्वारिका की मिट्टी में समाहित कर दिया. वहाँ की
मिट्टी चंदन की तरह महकने लगी. आज भी द्वारिका में गोपी-चंदन मिलता है, जिसे
भक्तगण प्रसाद के रूप में अपने साथ लाते हैं.
श्रीकृष्ण-गोपी प्रेम प्रसंग
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जब गोकुलवासियों को
श्रीकृष्ण के जन्म का समाचार मिला तो सब हर्षित होकर नन्द-यशोदा के घर एकत्र होकर
बधाई देने पहुँच गये. गोपियाँ आनन्दमग्न होकर नृत्य करने लगीं. श्रीकृष्ण की
मोहिनी सूरत देखने के लिये नित्य-प्रति नन्द के यहाँ आने लगीं. कभी श्रीकृष्ण को
झूले में झुलातीं, कभी उनका माथा चूमतीं, कभी नजर का टीका लगातीं.
श्रीकृष्ण थोड़ा बड़े हुये
तो आस-पास के घरों में जाने लगे, गोपियाँ उन्हें प्रेम से माखन-मिश्री खिलातीं और
सुख पाती थीं. कभी-कभी श्रीकृष्ण अकेले ही गोपियों के घर घुस जाते थे और दही-माखन
खाकर बाकी का बिखरा जाते थे या दही-माखन के मटकों को सखाओं के साथ मिलकर फोड़ जाते
थे. जब गोपियाँ वापस घर आती थीं तो दही-माखन बिखरा देख व मटकियाँ टूटी देख बहुत
क्रोधित होती थीं. गोपियाँ शिकायत लेकर यशोदा के पास जाती थीं कि “देखो! कान्हा ने हमारे यहाँ दही-माखन की चोरी ही नहीं कि वरन् मटकियाँ भी तोड़ दीं”. माँ के पूछने
पर साफ मना कर देते, “माँ! गोपियाँ झूठ बोल रही हैं, मटकी ऊपर छींके पर रखी थी, भला
मेरे छोटे हाथ वहाँ कैसे पहुँच सकते हैं”. यदि कुछ दिन श्रीकृष्ण
गोपियों के घर नहीं जाते थे तो वे स्वयं श्रीकृष्ण से कहने लगती कि कान्हा जाओ घर
में माखन रखा है खा लो. कभी बुलाकर उनसे नृत्य करवातीं और आनंद सुख प्राप्त करतीं.
श्रीकृष्ण कुछ बड़े हुये तो
गोपियों के साथ बैठकर दूध दुहना सीखने लगे. श्रीकृष्ण को भी गोपियों के साथ
छेड़छाड़ करने में आनंद आता था. यमुना से जल लाती हुई गोपियों की मटकियां फोड़
देते थे जिससे गोपियों के सारे वस्त्र गीले हो जाते थे. जब श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते
थे तो गोपियाँ अपनी सुध-बुध खो देती थीं और घर का सब काम-काज छोड़कर जहाँ कान्हा
बाँसुरी बजाते थे वहीं चली जाती थीं.
गोपियाँ श्रीकृष्ण को
साक्षात् परमब्रह्म परमेश्वर का अवतार मानती थीं और पति भाव से उनसे प्रीति करती
थीं. श्रीकृष्ण भी गोपियों के मन के भाव को समझकर उनके साथ अनेक लीलायें करते थे
जैसे-चीरहरण लीला, महारास लीला, दही-माखन की चोरी, आदि. जब श्रीकृष्ण कंस के बुलाने
पर वृन्दावन छोड़कर मथुरा चले गये तो सभी गोपियाँ ऐसे श्रीहीन हो गयीं मानों उनके
शरीर में प्राण ही न हों. यहाँ तक कि जब श्रीकृष्ण के कहने पर उद्धव वृन्दावन आये
और निर्गुण ब्रह्म का ज्ञानपोदेश गोपियों को सुनाया तो अपनी सीधी सरल, सच्ची भक्ति
में डूबी उक्तियों से गोपियों ने उद्धव को निरूत्तर कर दिया.
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सोलह हजार एक सौ कन्याओं का विवाह
श्री कृष्ण के साथ
डॉ. मंजूश्री गर्ग
भौमासुर(नरकासुर) नाम का पृथ्वी का अत्यन्त
बलवान पुत्र था, जिसकी राजधानी प्राग्योतिषपुर थी. भौमासुर ने पृथ्वी के अनेक
राजाओं को परास्त कर दिया और उनकी कन्याओं का अपहरण कर अपने घर में कैद कर लिया.
धीरे-धीरे राज-कन्याओं की संख्या सोलह हजार एक सौ हो गयी, तब वह सोचने लगा कि जब
इनकी संख्या एक लाख हो जायेगी, तो एक साथ इन सबसे विवाह करूँगा. जब श्रीकृष्ण को
ज्ञात हुआ कि भौमासुर ने राज-कन्याओं को बंदी बना रखा है तो तुरन्त ही वह भौमासुर
के राज्य में गये और भौमासुर को मारकर राज-कन्याओं को आजाद किया. तब राज-कन्याओं ने
श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि हे प्रभु आपने हमें मुक्त कराकर हमारे ऊपर असीम
कृपा बरसाई है अब आप कृपा कर हमें अपने चरणों की दासी बनाकर अपनी सेवा में रहने की
आज्ञा दें, क्योंकि राक्षस के यहाँ रहने के कारण समाज में हमारे लिये अन्यत्र कोई
स्थान नहीं है. तब श्रीकृष्ण उन सोलह हजार एक सौ कन्याओं को लेकर द्वारिका आ
गये. वहाँ राजा उग्रसेन की आज्ञा से उन सोलह हजार एक सौ कन्याओं का विवाह
श्रीकृष्ण से कर दिया गया, वे सब दिन-रात श्रीकृष्ण की सेवा करने लगीं।
श्री कृष्ण-सत्यभामा और श्री कृष्ण-जाम्बवती
के
विवाह की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
(स्यमन्तक मणि की कथा से ही श्री
कृष्ण-सत्यभामा और श्री कृष्ण-जाम्बवती के विवाह की कथा सम्बन्धित है)
द्वारिकापुरी में सत्राजित् नाम का एक य़ादव रहता
था. उसने बहुत दिनों तक सूर्य नारायण भगवान का तप करके स्यमन्तक मणि प्राप्त
की थी. उसके प्रभाव से शीघ्र ही सत्राजित् धनवान हो गया. स्यमन्तक मणि की
नित्य पूजा अर्चना करने से उसे बीस मन सोना नित्य प्राप्त होता था. एक बार
सत्राजित् स्यमन्तक मणि को गले में डालकर राजा उग्रसेन की सभा में गया.
सूर्य के समान प्रकाश फैलाने वाली स्यमन्तक मणि की ओर सभी का ध्यान गया.
एक
बार श्री कृष्ण ने सत्राजित् से स्यमन्तक मणि राजा उग्रसेन को देने की बात
कही क्योंकि राजा सब मनुष्यों में श्रेष्ठ है और जिस प्राणी के पास जो श्रेष्ठ
वस्तु हो उसे राजा को देनी चाहिये. यह कथन सुनकर सत्राजित् उदास हो गया और
श्रीकृष्ण का कथन उपने भाई प्रसेन से कहा. प्रसेन को यह सुनकर क्रोध आया और उसने
वह मणि सत्राजित् से लेकर अपने गले में डाल ली. एक बार प्रसेन शिकार के लिये वन
में गया, वहाँ एक पर्वत की गुफा के निकट पहुँचा, उस गुफा में एक शेर रहता था. शेर
ने प्रसेन और उसके घोड़े को मारकर स्यमन्तक मणि को गुफा में डाल दिया. फिर
जाम्बवान नाम के रीछ ने शेर को मार डाला और वह मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया.
मणि के प्रभाव से जाम्बवान की अँधेरी गुफा जगमगा उठी.
इधर
सत्राजित् को शक हुआ कि श्री कृष्ण ने उसके भाई प्रसेन को मारकर मणि प्राप्त कर ली
है. जब श्रीकृष्ण को इस मिथ्या कलंक का पता लगा तो वह अपने कुछ साथियों के साथ
प्रसेन को ढ़ूँढ़ने 9.
वन में गये. वन में जाकर पता लगा कि प्रसेन को
शेर ने मार डाला है. शेर के पंजों के निशान देखते हुये वह एक गुफा के पास पहुँचे
जहाँ जाम्बवान् ने शेर को मार डाला था. श्री कृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसा कौन
सा जानवर है जिसने शेर को मार डाला. अपने साथियों को बाहर रोकर श्रीकृष्ण गुफा के
अन्दर गये. गुफा में जाम्बवान् की पुत्री जाम्बवती स्यमन्तक मणि से खेल रही
थी, मणि के प्रभाव से सारी गुफा जगमगा रही थी. सत्ताईस दिन तक श्रीकृष्ण और
जाम्बवान् में युद्ध हुआ. अन्त में जाम्बवान् को बोध हुआ कि यह श्यामल स्वरूप श्री
रामचन्द्र जी के ही अवतार हैं तब वह श्री कृष्ण के चरणों में गिर गया और प्रार्थना
करने लगा. तब श्री कृष्ण ने अपने वहाँ आने का कारण बताया. जाम्बवान् ने प्रसन्न
होकर अपनी पुत्री जाम्बवती और स्यमन्तक मणि श्रीकृष्ण को सौंप दी.
जब
श्री कृष्ण द्वारिका वापस आ गये तो राजा उग्रसेन ने सभा में सत्राजित् को बुलाकर
मणि वापस कर दी. मणि को हाथ में लेकर सत्राजित् को अपराध बोध हुआ कि मैंने मिथ्या
ही श्री कृष्ण पर कलंक लगाया. अपराध बोध से मुक्त होने के लिये सत्राजित् ने अपनी
पुत्री सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण से कर दिया और दहेज में स्यमन्तक मणि
दे दी. श्री कृष्ण ने सत्यभामा को तो स्वीकार कर लिया लेकिन मणि सत्राजित् को ही
वापस कर दी.
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श्री कृष्ण- लक्ष्मणा विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
लक्ष्मणा मद्रास(द्रविड़) के राजा की पुत्री
थीं. जब लक्ष्मणा विवाह के योग्य हुईं तो राजा ने पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवर
रचा. अनेक देशों के राजाओं के साथ श्री कृष्ण भी अर्जुन के साथ वहाँ पहुँचे. जब
लक्ष्मणा स्वयंवर-स्थल में आईं तो श्री कृष्ण की मधुर मुस्कान पर मोहित होकर
वरमाला उन्हीं को पहना दी. तब राजा ने लक्ष्मणा का विवाह श्री कृष्ण से कर दिया.
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श्री कृष्ण-भद्रा का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
भद्रा भदावर देश के राजा की पुत्री थीं. जब
भद्रा विवाह के योग्य हुईं तो राजा ने भद्रा के विवाह के लिये स्वयंवर रचा. स्वयंवर
में भाग लेने अनेक राजा आये, श्री कृष्ण भी अर्जुन के साथ वहाँ गये. जब राजकुमारी
वरमाला लिये हुये आयीं तो श्री कृष्ण की मेहिनी मूरत पर रीझ कर माला श्री कृष्ण के
गले में डाल दी. तब राजा ने भद्रा का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया.
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श्री कृष्ण-सत्या का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
सत्या अयोध्या के राजा नग्नजित् की पुत्री थीं.
जब सत्या विवाह के योग्य हुईं तो नग्नजित् ने यह प्रण किया कि जो कोई मेरे सात
बैलों को एक साथ नाथ देगा, उसी के साथ मैं अपनी पुत्री का विवाह करूँगा. अनेक
राजाओं ने अयोध्या आकर सात बैलों को एक साथ नाथने का प्रयत्न किया, लेकिन असमर्थ
रहे. एक बार श्री कृष्ण अर्जुन के साथ अयोध्या गये, वहाँ राजा नग्नजित् ने उनका
बहुत आदर सत्कार किया. जब राजकुमारी सत्या ने श्री कृष्ण को देखा तो वह उन पर
मुग्ध हो गयीं और मन ही मन श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की कामना करने
लगीं. श्री कृष्ण ने राजा नग्नजित् के कहने पर उनकी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा के
सात बैलों को एक साथ नाथ दिया. राजा नग्नजित् बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने
प्रसन्नतापूर्वक सत्या का विवाह शास्त्र-विधि के अनुसार श्री कृष्ण से कर दिया.
श्री कृष्ण जब सत्या के साथ द्वारिका आये तो सभी बहुत आनन्दित हुये.
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श्री कृष्ण-मित्रविन्दा का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
श्री कृष्ण की राजदेवी नाम की एक बुआ का विवाह उज्जैन
के राजा से हुआ था. उसकी एक परम सुन्दरी कन्या थी, जिसका नाम मित्रविन्दा था. जब
मित्रविन्दा विवाह के योग्य हुईं तो उनके लिये स्वयंवर रचा गया. श्री कृष्ण भी
स्वयंवर में गये. मित्रविन्दा ने श्री कृष्ण को देखकर अन्य राजाओं को छोड़कर श्री
कृष्ण के गले में माला डाल दी. दुर्योधन, आदि के विरोध करने पर श्री कृष्ण
मित्रविन्दा को रथ में बैठाकर द्वारिका ले आये और वहाँ श्री कृष्ण-मित्रविन्दा का
विधिवत विवाह हुआ.
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श्री कृष्ण-कालिन्दी विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
कालिन्दी सूर्य की पुत्री थीं. पिता की आज्ञा से
श्री कृष्ण को परमब्रह्म परमेश्वर का अवतार मानकर, उन्हें पतिरूप में प्राप्त करने
के लिये यमुना-जल में रत्न जड़ित स्वर्ण मंदिर में बैठकर तपस्या करने लगीं. एक बार
श्री कृष्ण और अर्जुन शिकार खेलकर वन में विश्राम करने लगे. अर्जुन यमुना तट पर जल
लेने के लिये गये तो उन्होंने अद्भुत दृश्य देखा कि जल के बीच में एक परम सुन्दरी
तपस्या कर रही है. अर्जुन ने उस कन्या के पास जाकर पूछा- “हे सुन्दरी! तुम्हारा नाम क्या है? और क्यों
तपस्या कर रही हो”? तब कालिन्दी ने
अपना परिचय दिया और श्री कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने की अभिलाषा अभिव्यक्त
की. अर्जुन ने कालिन्दी के मन का सब हाल श्री कृष्ण से कहा. श्री कृष्ण शीघ्र ही
कालिन्दी के पास पहुँचे. कालिन्दी श्री कृष्ण को देखकर उनके चरणों में गिर गयीं,
श्री कृष्ण ने भी प्रसन्न होकर कालिन्दी का हाथ पकड़ लिया. तब श्री कृष्ण और
कालिन्दी सूर्य देवता के पास गये, वहाँ सूर्यदेव ने श्री कृष्ण और कालिन्दी का
विवाह विधिवत करा दिया.
कालजयी कृति
डॉ. मंजूश्री गर्ग
समसामयिक, शाश्वत, सार्वकालिक, सार्वभौमिक रचना ही कालजयी कृति बन सकती है----
समसामयिक
समसामयिक से अभिप्राय है जिस काल में कवि या लेखक जीता है उसकी रचनाओं में उस समय की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक पृष्ठभूमि की झलक अवश्य होती है, इसीलिये साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है.
शाश्वत
शाश्वत से अभिप्राय कवि या लेखक की रचनाओं में ऐसी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से है, जो ब्रह्म की तरह अजर, अमर हैं. जैसे- प्रेम की अनुभूति, विरह की अनुभूति.
सार्वकालिक
सार्वकालिक से अभिप्राय कवि या लेखक की रचनाओं में ऐसी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से है जो कल भी थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी.
सार्वभौमिक
सार्वभौमिक से अभिप्राय कवि या लेखक की रचनाओं में ऐसी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से है जो पृथ्वी पर सब जगह एक समान देखने को मिलती हैं चाहें हम पृथ्वी के किसी भी कोने में क्यों न हों.