झिलमिलाते सितारे
और
सूर्य की स्वर्णिम किरणों
के साथ
नववर्ष 2025
की
आप सबको हार्दिक शुभकामनायें
डॉ. मंजूश्री गर्ग
नचिकेता की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
नचिकेता
प्रसिद्ध ऋषि वाजऋवस के पुत्र थे. एक बार वाजऋवस ने एक अनोखा अनुष्ठान किया, जिसमें अपनी सारी धन-संपत्ति दीन-दुखियों व
ब्राह्मण-पुरोहितों को दान कर दी. जब वे अपनी सारी संपत्ति बाँटने में व्यस्त थे, तो बालक नचिकेता ने मन में सोचा कि अवश्य पिताजी ने मुझे भी
दान कर दिया है. तब उसके मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई कि पिताजी ने दान में मुझे
किसे दिया है. उसने अपने पिता से पूछा, “पिताजी, आपने मुझे किसको दान कर दिया है.”
वाजऋवस
ने कोई उत्तर नहीं दिया. नचिकेता के बार-बार पूछने पर वाजऋवस ने झुँझला कर कहा, “यमराज को.” यह सुनकर नचिकेता सहित आसपास खड़े जन स्तब्ध रह
गये. कहने के बाद वाजऋवस को धक्का सा लगा. नचिकेता सोचने लगा कि, “मैंने ऐसा क्या किया कि पिता को मेरी मृत्यु की कामना करनी पड़ी. अवश्य ही
यही मेरा प्रारब्ध है कि यमराज से मेरी भेंट हो.
सभी के
मना करने पर भी नचिकेता यमराज से मिलने यमलोक चला गया, किंतु उस समय वहाँ यमराज नहीं थे. तीन दिन, तीन रातें बिना कुछ खाये-पिये वह यमराज की प्रतीक्षा करता रहा. जब यमराज
लौटे तो बालक के अपूर्व साहस और दृढ़ निश्चय को देखकर बहुत प्रसन्न हुये. यमराज ने
नचिकेता से तीन वर माँगने को कहा.
नचिकेता
ने पहला वर माँगा, “मेरे यहाँ आने
से मेरे पिता बहुत चिंतित और दुःखी होंगे. उनकी चिंता दूर हो और उनके मन को शांति
मिले.”
यमराज
ने कहा, “तथास्तु.”
नचिकेता
ने दूसरा वर माँगा, “स्वर्ग की
प्राप्ति कैसे होती है. स्वर्ग जहाँ न बुढ़ापे का भय है, न
मृत्यु का.”
यमराज
ने प्रसन्नता पूर्वक स्वर्ग प्राप्ति के साधन बता दिये.
नचिकेता
ने तीसरा वर माँगा, “यमराज! मुझे
मृत्यु का भेद बताइये. बताइये मृत्यु के बाद क्या होता है और मनुष्य अमर कैसे हो
सकता है.”
यमराज
दुविधा में पड़ गये, क्योंकि ये बड़े
गुप्त रहस्य की बात थी;जिनके बारे में ब्रह्म और यमराज ही
जानते थे.
यमराज
ने नचिकेता से कुछ और माँगने को कहा---धन, सत्ता अथवा राज्य. किंतु नचिकेता पर किसी भी प्रलोभन का असर नहीं हुआ.
यमराज हैरान थे कि इतने छोटे से बालक को ऐसी गूढ़ बातें जानने की कितनी जिज्ञासा
है. अंत में यमराज को नचिकेता के प्रश्नों के उत्तर देने ही पड़े. उन्होंने मनुष्य
के सच्चे रूप , यानि आत्मा को समझने की कठिनाईयाँ बतायीं.
यमराज
ने नचिकेता से कहा, “यदि तुम आत्मा
को भली प्रकार समझने में सफल हो जाओ तो तुम देखोगे कि मृत्यु एक छल मात्र है;
क्योंकि मनुष्य का सच्चा रूप तो आत्मा है, जो
कभी नहीं मरती. मरता तो केवल शरीर है.”
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गंगा अवतरण की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
राजा
हरिश्चन्द्र के वंश में ही राजा सगर हुये जिन्होंने धर्मपूर्वक राज्य करते हुये,
अन्य राजाओं को जीतकर अपना राज्य बहुत बढ़ा लिया। उसके साठ हजार एक पुत्र थे। कुछ
समय पश्चात् राजा सगर ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। निन्यानवें यज्ञ तो
भली-भाँति सम्पूर्ण हो गये परन्तु जब सौवाँ यज्ञ आरम्भ करके श्याम-कर्ण घोड़ा
छोड़ा और अपने साठ हजार पुत्रों को उसकी रक्षा के लिये साथ किया, तब इन्द्र ने
अपने इन्द्रासन चले जाने के भय से छल द्वारा घोड़े को पकड़कर कपिलमुनि के आश्रम
में बाँध दिया और स्वयं इन्द्रलोक चले गये। जब राजकुमारों को अपना घोड़ा कहीं
दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सारा वृतान्त राजा सगर को सुनाकर आज्ञा माँगी कि यदि
आप आज्ञा दें तो हम पृथ्वी को खोदकर घोड़ा ढ़ूँढ़ निकालें। राजा सगर ने आज्ञा दे
दी, तब सगर पुत्रों ने पृथ्वी को इस प्रकार खोदा कि भरत-खण्ड में सात छोटे-छोटे
समुद्र बन गये। जब वे घोड़े को ढ़ूँढ़ते हुये कपिलमुनि के आश्रम में पहुँचे, तो
देखा कि कपिलमुनि आँख बंद करके तपस्या कर रहे हैं और घोड़ा उनके पीछे बँधा है।
राजकुमारों की आवाज सुनकर कपिलमुनि की समाधि भंग हो गयी और मुनि ने राजकुमारों की
ओर देखा, तो वे सब साठ हजार सगर पुत्र उसी जगह जलकर भस्म हो गये।
जब राजा सगर को
बहुत दिनों तक अपने पुत्रों का कोई समाचार नहीं मिला तो राजा ने अपने पौत्र
अंशुमान को अपने चाचाओं और घोड़े का पता लगाने के लिये भेजा। अंशुमान उन्हें
ढ़ूँढ़ता हुआ कपिलमुनि के आश्रम पहुँचा, वहाँ उसने मुनि को प्रणाम कर उनकी बहुत
भाँति से स्तुति की। तब कपिलमुनि प्रसन्न होकर अंशुमान से बोले-“हे सगर पौत्र! तू अपना
घोड़ा ले जा, लेकिन तेरे समस्त चाचा मेरी क्रोधाग्नि द्वारा भस्म हो चुके हैं।
इसलिये जब गंगाजी पृथ्वी पर आवेंगी, तभी उनका उद्धार हो सकेगा।“ यह सुनकर अंशुमान कपिलमुनि को दण्डवत कर, श्याम कर्ण घोड़े
को ले, पितामह राजा सगर के पास आये और सारा वृतान्त सुनाया। पहले तो राजा सगर को
बहुत दुःख हुआ, फिर ईश्वर-इच्छा जानकर धैर्य धारण किया, सौंवा यज्ञ सम्पूर्ण कर
राज्य अंशुमान को सौंप स्वयं वन को चले गये।
कुछ समय तक
राज्य करने के बाद राजा अंशुमान ने राज्य अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया और स्वयं
वन में जाकर अपने चाचाओं के उद्धार के हेतु पृथ्वी पर श्रीगंगाजी को अवतिरत करने
के लिये श्रीहरिजी का तप करने लगे, वहीं राजा अंशुमान को मुक्ति प्राप्त हो गयी।
तत्पश्चात् राजा दिलीप ने भी गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के हेतु तप करके अपना शरीर
त्याग दिया, लेकिन गंगा जी तब भी पृथ्वी पर नहीं आयीं। राजा दिलीप के स्वर्गवास के
समय उनके पुत्र भगीरथ बाल्यावस्था में ही थे। मित्रों के साथ खेलते हुये भगीरथ ने
यह वृतान्त सुना कि अनके पिता और पितामह ने गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के लिये तप
करते हुये अपना शरीर त्याग दिया है, तब उन्होंने प्रण किया कि जब तक मैं गंगाजी को
पृथ्वी पर लाने में सफल नहीं हो जाऊंगा राज सिंहासन पर आरूढ़ नहीं होऊँगा। यह
निश्चय कर तप करने के लिये वन में चले गये।
भगीरथ के तप से
प्रसन्न होकर गंगा जी ने उन्हें दर्शन देते हुये कहा- “हे पुत्र! तेरी क्या इच्छा है.”भगीरथ ने उनकी
दण्डवत परिक्रमा करके उत्तर दिया- “हे माता! कपिलदेव की
क्रोधाग्नि द्वारा मेरे साठ हजार पितामह जलकर भस्म हो गये हैं, इसलिये मेरी यह
इच्छा है कि आप पृथ्वी पर पधार कर उनकी भस्म को अपने साथ बहाकर ले जायें, तो उन
सबका उद्धार हो जाये।“ यह सुनकर गंगा जी बोलीं-
“हे भगीरथ! मुझे पृथ्वी
पर आना स्वीकार है, परन्तु मेरे आकाश से गिरने के वेग को न सह सकने के कारण पृथ्वी
रसातल को चली जायेगी। इसलिये तुम किसी ऐसे शक्तिशाली देवता की आराधना करो, जो मेरे
वेग को सह सके।“ तब भगीरथ ने महादेव जी को प्रसन्न करने के लिये तप किया। जब
शंकर जी ने प्रसन्न होकर भगीरथ को दर्शन दिये, तो भगीरथ ने उनसे प्रार्थना की कि- “हे कैलाश पति! आप कृपा कर गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण कीजिए जिससे मेरे पूर्वजों का
उद्धार हो जाये।“ तब शंकर जी ने भगीरथ से कहा- “हे भगीरथ! मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है।“ जब गंगा जी पृथ्वी पर आने
लगीं तब शंकर जी ने उस जल को अपनी जटाओं में ही समा लिया। तत्पश्चात् भगीरथ ने
शंकर जी से पुनः विनती की, तब शंकर जी ने भगीरथ को एक रथ देते हुये कहा- “हे भगीरथ! तू इस रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल, तब गंगा जी तेरे पीछे-पीछे चलेंगी।“यह कहकर शंकर जी ने अपने सिर की जटाओं में से जल की एक छोटी
धारा पृथ्वी पर गिरा दी। तब भगीरथ शंकर जी के दिये हुये रथ पर बैठकर वहाँ चल दिये
जहाँ उसके पूर्वजों की भस्म पड़ी हुई थी। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा जी ने उसके
साठ हजार पूर्वजों का उद्धार कर दिया और गंगा जी सागर में मिल गयीं। कपिलमुनि का
आश्रम गंगा सागर महातीर्थ का पुण्य स्थल बन गया, जहाँ प्रतिवर्ष मकर
संक्राति के दिन महापर्व का आयोजन होता है।
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भक्त ध्रुव
डॉ. मंजूश्री गर्ग
भक्त ध्रुव राजा उत्तानपाद
के पुत्र थे और राजा स्वायम्भुव मनु के पौत्र थे. राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ
थी. बड़ी रानी का नाम सुनीति था जो ध्रुव की माँ थी, छोटी रानी का नाम सुरूचि था
जिसके पुत्र का नाम उत्तम था. राजा सुरूचि को अधिक प्यार करते थे, इसी कारण उसके
पुत्र उत्तम को भी ध्रुव से अधिक प्यार करते थे.
एक दिन राज सिंहासन पर
बैठकर राजा उत्तानपाद अपने पुत्र उत्तम को गोद में बैठाकर प्यार कर रहे थे, तभी
पाँच बर्षीय ध्रुव भी वहाँ आया और उसके मन में भी पिता की गोद में बैठने की इच्छा
हुई, किन्तु राजा ने रानी सुरूचि के डर से ध्रुव को गोद में नहीं लिया. उस समय सुरूचि
ने ध्रुव को सुनाते हुये कहा, “हे! ध्रुव तूने पूर्वजन्म में हरि भगवान की तपस्या व स्मरण
नहीं किया, इसी से तू अभागा पैदा हुआ. यदि तू पूर्वजन्म में तपस्या करता तो मेरे
गर्भ से उत्पन्न होता और तब तू राजा की गोद में बैठने का भी अधिकारी होता”. ध्रुव वहाँ से
रूदन करता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास चला गया. सुनीति ने ध्रुव को रोता हुआ देखकर
अपनी गोद में ले लिया, कारण जानने पर वो भी बहुत दुखी हुई.
सुनीति ने ध्रुव से कहा, “कुमाता(सुरूचि) सही कहती हैं, श्री नारायण की तपस्या करने से ही मनुष्य की सब अभिलाषायें पूर्ण हो सकती हैं, अतः तुझे उन्हीं की शरण में जाना चाहिये. माता की बात सुनकर ध्रुव घर से बाहर निकल श्री नारायण की तपस्या के लिये वन की ओर चला गया. वह अपने मन में सोचता जा रहा था कि मैं अज्ञानी बालक श्री नारायण को किस प्रकार प्राप्त कर सकूँगा. तभी मार्ग में ध्रुव को नारद जी मिले जो उसकी परीक्षा लेने के लिये ही आये थे कि ध्रुव अपने प्रण पर अटल हैं या नहीं. नारद जी ने ध्रुव को घर वापस जाने के लिये काफी समझाया लेकिन ध्रुव को अपने प्रण पर अटल देखकर नारद जी ने ध्रुव को श्री नारायण के दर्शन प्राप्त करने का उपाय बताया और कहा- “मथुरापुरी जाकर, वहाँ उत्तर दिशा की ओर मुख करके श्री नारायण जी के स्वरूप –उनका स्याम रंग है, कमल के समान नेत्र हैं, सिर पर रत्न जड़ित मुकुट एवं कानों में मकराकृत कुंडल धारण किये हुये हैं, मुख चन्द्रमा के समान है, बैजंती माला एवं कौस्तुभ मणि गले में है और मंद-मंद मुस्कान है- का ध्यान करते हुये द्वादशाक्षर मंत्र(ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करना. श्री नारायण भगवान अवश्य प्रसन्न होंगे और तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी”. ध्रुव ने देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और मथुरापुरी को चल दिया.
ध्रुव के घर त्यागने के बाद राजा उत्तानपाद और सुनीति दोनों ही घर पर बहुत दुखी हुये, सोच रहे थे अबोध बालक न जाने कहाँ भटक रहा होगा. तभी नारद जी ने आकर उन्हें समझाया कि ध्रुव अपने प्रण पर अटल है. मैंने उसे घर जाने के लिये बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना, उसके मन में नारायण जी से मिलने की सच्ची प्रीति है. उसका अटल प्रण देखकर ही मैंने उसे नारायण जी की सहज प्राप्ति का मार्ग बताया है, मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ. तुम चिन्ता मत करो. ध्रुव को ऐसा अटल पद प्राप्त होगा, जैसा तुम्हारे वंश में आज तक किसी को नहीं मिला.
उधर ध्रुव ने भी मथुरापुरी
पहुँचकर कुश-आसन बिछाकर उत्तर की ओर मुँह करके, नारायण जी के चतुर्मुखी स्वरूप का
ध्यान करते हुये, द्वादश अक्षर मंत्र(ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करना प्रारम्भ
कर दिया. धीरे-धीरे ध्रुव श्री नारायण जी के ध्यान में इतना लीन हो गया कि उसने
अन्न-जल का भी त्याग कर दिया. छठे महीने ध्रुव ने अपना मुँह बंद करके श्वाँस लेना
भी छोड़ दिया और उसका समस्त अन्तःकरण श्री नारायण जी के स्वरूप से द्रवीभूत हो
गया. तब श्री नारायण जी ने अपने चतुर्मुखी स्वरूप में ध्रुव को दर्शन दिये, दर्शन
पाकर ध्रुव अति प्रसन्न हुआ. नारायण जी ने ध्रुव से वरदान माँगने को कहा तो ध्रुव
ने कहा, “हे भगवन्! जब मुझे आपके चरणों के दर्शन प्राप्त हो गये, फिर माँगने
के लिये और क्या शेष है मैं तो आपके चरणों की भक्ति चाहता हूँ”. भक्त ध्रुव से
भगवान अति प्रसन्न हुये और कहा, “अभी तुम घर
जाओ, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी राह देख रहे हैं. राजगद्दी तुम्हें ही मिलेगी,
तुम 36,000 वर्ष तक राज्य करोगे और मरने पर हम तुझे रहने के लिये ब्रह्म-लोक से भी
ऊँचे ध्रुव-लोक में स्थान देंगे”. देवताओं ने प्रसन्न होकर
पुष्प वर्षा की. उसी समय नारद जी ने राजा उत्तानपाद को आज्ञा दी कि “तुम्हारा पुत्र प्रभु दर्शन कर घर आ रहा है, उसे आदर पूर्वक
घर ले आओ”. नारद जी के वचन सुनकर राजा उत्तानपाद बहुत प्रसन्न हुये और
उसे सहर्ष महल में ले आये. कुछ समय बीत जाने पर ध्रुव के युवा होने पर राजा
उत्तानपाद ध्रुव को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं तपस्या करने वन को चले गये.
ध्रुव जी के शरीर त्यागने
पर स्वर्ग से सुन्दर विमान आया और पार्षदों ने उन्हें ध्रुवलोक चलने को कहा. तब
ध्रुव ने कहा, “मेरी छोटी माता सुरूचि गुरू
के समान है, जिनकी प्रेरणा से ही मैं इस पद को प्राप्त कर सका हूँ. अतः मैं उनको
भी ध्रुवलोक ले जाना चाहता हूँ”. तब पार्षद बोले, “हे ध्रुव जी! प्रभु ने हमें आपकी दोनों माताओं सहित ही आपको ले आने की आज्ञा दी है, वे
आपसे पहले ही ध्रुवलोक पहुँच जायेंगी”. यह सुनकर ध्रुव
बहुत हर्षित हुये और पत्नी सहित विमान में बैठकर ध्रुवलोक को चले गये. देवताओं ने
उनपर फूल बरसाये.
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प्रद्युम्न की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
प्रद्युम्न श्रीकृष्ण और रूक्मिणी के पुत्र थे.
जब वह अठारह दिन के थे तो शम्बासुर नामक राक्षस प्रद्युम्न को उठा कर ले गया और
उन्हें समुद्र में फेंक दिया. समुद्र में एक मछली ने उन्हें निगल लिया. एक बार वह
मछली मछेरे के जाल में आ गयी और शम्बासुर के रसोईघर में लाई गयी. जब मछली का पेट
चीरा गया तो उसमें से एक सुन्दर बालक निकला. उस अत्यन्त सुन्दर बालक का मायावती(
जो शम्बासुर के यहाँ रसोइया बनकर रह रही थी) ने पालन-पोषण किया. मायावती
प्रद्युम्न के प्रति रति भाव रखती थी. धीरे-धीरे प्रद्युम्न बड़ा होने लगा और
सांसारिक बातों को समझने लगा. एक दिन प्रद्युम्न ने मायावती से पूछा, “हे माता! तुम मेरी माँ
होकर मुझे पति भाव से क्यों देखती हो.” तब मायावती ने कहा, “तुम पूर्वजन्म
में मेरे पति कामदेव थे और मैं तुम्हारी पत्नी रति. एक बार कामदेव ने देवताओं के
हित के लिये शिवजी की तपस्या भंग की थी. तब शिवजी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म
कर दिया था. किन्तु बाद में उन्हें बोध हुआ कि कामदेव निर्दोष है तब रति का विलाप
सुन, उसे आर्शीवाद देते हुये शिवजी ने रति से कहा, हे रति! तू चिन्तित मत हो. तेरा पति द्वापर युग में जब
कृष्णावतार होगा और श्रीकृष्ण-रूक्मिणी का विवाह होगा तो रूक्मिणी के गर्भ से जन्म
लेगा और तुझे शम्बासुर की रसोई में मिलेगा. पन्द्रह वर्ष की आयु में वह शम्बासुर
को मारकर तुझे द्वारिका ले जायेगा. वहाँ तेरा और उसका विधिवत विवाह होगा.” एक दिन प्रद्युम्न ने शम्बासुर को युद्ध के लिये
ललकारा और द्वन्द्व युद्ध करते हुये शम्बासुर को मार दिया. फिर प्रद्युम्न और रति
विमान में बैठकर द्वारिका जा पहुँचे. वहाँ बड़ी धूमधाम के साथ दोनों का विधिवत
विवाह हुआ.
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जय-विजय की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
एक बार सनत् कुमार बिष्णु भगवान के दर्शन के
लिये बैकुण्ठ लोक को गये, किन्तु वहाँ के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें बच्चे समझकर
अन्दर जाने से रोक दिया. परिणाम स्वरूप सनत् कुमारों ने क्रोधवश जय-विजय को श्राप
दिया कि तुमने हमारा तीन घड़ी समय नष्ट किया है, इसलिये तुम्हें तीन बार मृत्यु
लोक में दैत्य योनि में जन्म लेना होगा. जब स्वयं बिष्णु भगवान बाहर आये तो
उन्होंने सनत् कुमारों को वहाँ क्रोध की अवस्था में जय-विजय को श्राप देते हुये
देखा. तब बिष्णु भगवान ने सनत् कुमारों का अभिवादन किया और कहा कि जय-विजय तो मेरी
ही आज्ञा का पालन कर रहे थे. जय और विजय ने भी सनत् कुमारों के चरण पकड़ कर अनुरोध
किया कि हमसे जो भूल हुई है उसे क्षमा करने की कृपा कीजिए और श्राप से मुक्त कर
दीजिए. तब सनतकुमारों ने कहा कि दिया हुआ श्राप तो वापस नहीं हो सकता किन्तु साथ
ही यह वरदान भी देते हैं कि हर जन्म में तुम्हारी मृत्यु प्रभु के ही हाथों होगी
और तीसरी बार तुम्हें मुक्ति मिलेगी.
जय-विजय ने प्रथम जन्म हिरण्याक्ष और
हिरण्यकश्यप के रूप में लिया. जब हिरण्याक्ष को मारने के लिये प्रभु ने वाराह
अवतार लिया और हिरण्यकश्यप को मारने के लिये नृसिंह अवतार लिया. दूसरे जन्म में
जय-विजय रावण और कुम्भकर्ण बने, तब प्रभु ने राम अवतार लेकर रावण और कुम्भकर्ण को
मारा. तीसरे जन्म में जय-विजय ने शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया, तब
प्रभु ने कृष्ण अवतार लेकर शिशुपाल और दन्तवक्र को मारकर दैत्य योनि से मुक्त कर
बैकुंठ-धाम भेज दिया.
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सुभद्रा और अर्जुन का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
सुभद्रा कृष्ण और बलराम की बहन थीं और अर्जुन
कुन्ती-पुत्र थे. यद्यपि अर्जुन का विवाह द्रौपदी से हो चुका था किन्तु द्रौपदी
पाँचों पांडवों की पत्नी थी और उस विवाह के कुछ नियम थे. एक बार किसी कारणवश
अर्जुन ने विवाह का नियम भंग कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें बारह वर्ष तक वन
में वास करना था. तब अर्जुन वन में घूमते हुये एक बार द्वारिकापुरी आये, वहाँ
सुभद्रा के विवाह के विषय में सुना. श्रीकृष्ण सुभद्रा का विवाह अर्जुन से करना
चाहते थे, किन्तु बलराम जी दुर्योधन से. अर्जुन ने जब सुभद्रा को देखा तो उसके
रूप, गुण व शील पर मोहित हो गये और उसको पाने की लालसा मन में उत्पन्न हुई, इधर
सुभद्रा भी मन ही मन अर्जुन को चाहने लगी. जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन और सुभद्रा के
मन के भाव को जाना तो दोनों के मिलन का उपाय सोचने लगे. तब एक दिन अर्जुन से कहा “तुम शिव-रात्री तक यहीं रूको. शिव-रात्रि के दिन सभी
द्वारिकावासी रैयत-पर्वत पर शिव की पूजा के लिये जायेंगे, सुभद्रा भी जायेगी. तुम
वहाँ से सुभद्रा का हरण कर सीधे हस्तिनापुर चले जाना. यदि कोई तुम्हारा सामना करे,
तो निर्भय होकर युद्ध करना.” श्रीकृष्ण के
कहने के अनुसार शिव-रात्रि के दिन अर्जुन ने सुभद्रा का हरण किया और सीधे
हस्तिनापुर चले गये.
श्री बलराम ने जब सुभद्रा-हरण का समाचार सुना तो
अत्यन्त क्रोधित हुये और यदुवंशियों को साथ लेकर अर्जुन से युद्ध करने को तैय्यार
हुये. तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया, “हे दादा! अर्जुन हमारी
बुआ का बेटा, मित्र और कुलीन है, उसके बराबर यदुवंशियों में कोई भी नहीं है.
यद्यपि उसने यह अनुचित कार्य किया है फिर भी उससे युद्ध करना उचित नहीं है. अच्छा
है हम अर्जुन और सुभद्रा के विवाह को स्वीकार कर लें और विवाह के उपलक्ष्य में
उचित उपहार लेकर हस्तिनापुर जायें.” इस तरह सर्वसम्मति से हस्तिनापुर में अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हुआ, जिनसे
वीर और तेजस्वी अभिमन्यु उत्पन्न हुआ.
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श्रीकृष्ण और सुदामा की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
श्रीकृष्ण और सुदामा संदीपन ऋषि के
आश्रम(उज्जैन) में एक साथ विद्या अध्ययन करते थे. एक बार गुरू पत्नी ने श्रीकृष्ण
और सुदामा को वन में ईंधन के लिये लकड़ी लेने भेजा, साथ में कलेवा(नाश्ता) के लिये
चने दिये. दोनों का कलेवा सुदामा के ही पास था. वन से लौटते समय अचानक तेज
आँधी-बारिश आने के कारण रात दोनों को वन में बितानी पड़ी. सुदामा चुपचाप अकेले चने
खाते रहे, जब श्रीकृष्ण ने सुदामा से कहा, “हे भाई! तुम क्या खा
रहे हो, यदि तुम्हारे पास कोई खाने की वस्तु हो तो हमें भी दो.”तब सुदामा ने झूठ बोला कि “मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है, मेरे दाँत तो ठंड के कारण कटकटा रहे हैं.
”इस प्रकार सुदामा ने
श्रीकृष्ण के हिस्से का कलेवा(चने) भी स्वयं खा लिया. परिणाम स्वरूप सुदामा को
भविष्य में घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ा.
एक बार सुदामा के परिवार को दरिद्रता के कारण दो
दिन बिना आहार के ही बिताने पड़े. तीसरे दिन उनके दो छोटे बच्चे भूख से व्याकुल
होकर रोने लगे. तब सुदामा की पत्नी सुशीला ने विनती करते हुये अपने पति से कहा, “हे नाथ! लक्ष्मीपति
श्रीद्वारिकानाथ आपके परममित्र और गुरू-भाई हैं. यदि आप उनके पास जायें तो वो आपकी
दरिद्रता दूर करने का अवश्य प्रयास करेंगे.” सुदामा ने बहुत मना किया, लेकिन सुशीला के बार-बार आग्रह करने पर सुदामा अपनी
पत्नी द्वारा दिये चावलों की पोटली बगल में दबाकर श्रीकृष्ण के दर्शन की अभिलाषा
मन में लिये वैभवपूर्ण द्वारिका पुरी को चल दिये.
सुदामा जब राजमहल के पास पहुँचे तो द्वारपाल ने
उन्हें द्वार पर रोक दिया और श्रीकृष्ण को समाचार कहा कि “एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण आपसे मिलने आया है, उसका नाम
सुदामा है और आपको अपना मित्र बताता है.” सुदामा का नाम सुनकर श्रीकृष्ण तुरन्त ही सिंहासन से उठकर स्वयं सुदामा से
मिलने दौड़ पड़े, सुदामा को सहर्ष गले से लगाया ससम्मान राजभवन में अन्दर लाकर
सिंहासन पर बैठाया. स्वयं अपने हाथों से सुदामा के चरण धोये और रूक्मिणी, आदि आठों
पटरानियों के साथ मिलकर आदर-सत्कार किया. सुदामा संकोच वश भेंट स्वरूप लाई चावलों
की पोटली श्रीकृष्ण को नहीं दे रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने सुदामा के मन का भाव जानकर
स्वयं ही चावलों की पोटली ले ली और बहुत ही स्नेह सहित चावल खाये. यद्यपि सुदामा
के मन में धन की कोई लालसा नहीं थी, फिर भी श्रीकृष्ण ने सुदामा की दरिद्रता दूर
कर सुदामा के घर का जीर्णोद्धार किया. धन-धान्य व सभी सुख-सुविधाओं से सुदामा का
घर भर दिया.
श्रीकृष्ण के ह्रदय पर भृगु ऋषि का चिह्न
डॉ. मंजूश्री गर्ग
एक बार अन्य ऋषियों के कहने पर भृगु ऋषि
ब्रह्मा, बिष्णु, महेश की परीक्षा लेने गये कि तीनों में कौन सबसे बड़ा है. पहले
भृगुजी ब्रह्मा जी की सभा में गये और बिना दण्डवत किये ही बैठ गये. ब्रह्मा जी
बहुत क्रोधित हुये, किन्तु इन्हें अपना पुत्र समझकर कुछ नहीं कहा. फिर भृगु जी
शिवजी के कैलाश पर्वत गये, शिवजी भृगु जी से मिलने के लिये हाथ फैलाकर खड़े हो
गये, लेकिन भृगु जी यह कहकर दूर ही खड़े रहे कि तुम धर्म-कर्म छोड़कर मरघट में
बैठे रहते हो. अतः मुझे स्पर्श मत करो. यह सुनकर शिवजी को अत्यन्त क्रोध आया और वे
त्रिशूल लेकर मारने के लिये दौड़े. उस समय पार्वती जी ने यह कहकर शिवजी को शांत
किया कि भृगु आपके छोटे भाई हैं, इसलिये इनका अपराध क्षमा करो. तब भृगुजी बैकुंठ
में श्रीबिष्णु भगवान के पास गये जहाँ श्री हरि रत्न-जड़ित शैय्या पर सोये हुये
थे. भृगु जी ने अपने बायें चरण से उनके वक्षस्थल पर प्रहार किया, चरण-प्रहार लगते
ही श्री हरि उठकर बैठ गये और अपने कर-कमलों से भृगु जी के चरणों को पकड़कर कहने
लगे, “हे मुनि श्रेष्ठ! आपके चरण कमल अति कोमल हैं और मेरा ह्रदय वज्र के समान कठोर है, अतः आपको
कहीं चोट तो नहीं लगी. भगवन्! यदि मुझे आपके
आगमन का समाचार मिला होता तो मैं स्वयं बढ़कर आपकी अगवानी करता. अब आपके चरण-चिह्न
को मैं सदैव अपने ह्रदय पर धारण किये रहूँगा. ”यद्यपि लक्ष्मी जी क्रुद्ध होकर शाप भी देना चाहती थीं
किंतु श्री हरि के भय से कुछ न कह सकीं. तब भृगु ऋषि ने अन्य ऋषिमुनियों को सारा
वृतान्त सुनाते हुये कहा कि “श्री नारायण से
अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है.”
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श्री कृष्ण-राधा प्रेम-प्रसंग
डॉ. मंजूश्री गर्ग
श्री कृष्ण जब
लगभग पाँच वर्ष के थे, तो उनके
माता-पिता यशोदा और नंद बाबा कंस के अत्याचारों से तंग आकर अन्य गोप-गोपिकाओं के
साथ गोकुल छोड़कर वृंदावन में आ बसे. वृंदावन में बहुत ही सुंदर वन थे, छोटी-छोटी गलियाँ थीं, पास ही यमुना नदी
बहती थी. वृंदावन के पास ही बरसाने गाँव था, जहाँ बृषभानु और
कीर्ति की पुत्री राधारानी रहती थी. राधारानी प्रायः अपनी सखियों के संग खेलने के
लिये वृंदावन आती थी. श्री कृष्ण की नटखट शरारतें; जैसे---माखन
चोरी, मटकी फोड़ना, आदि आस-पास के
गाँवों में चर्चा के विषय बने हुये थे. राधा के मन में भी कान्हा को देखने की
जिज्ञासा थी.
एक बार श्रीकृष्ण पीताम्बर पहने, पटुका कमर में बाँधे, मोर-मुकुट धारण
किये यमुना तट पर अपने सखाओं के साथ खेल रहे थे. तभी राधारानी जिनकी आयु लगभग आठ
बरस की होगी, अपनी सखियों के साथ यमुना तट पर स्नान करने
आयीं. श्री कृष्ण और राधा की परस्पर आँखें मिलीं और दोनों एक दूसरे को देखते ही
रहे. दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रीति जाग उठी. तब बाँके बिहारी ने
हँसकर राधा से उनका नाम पूछा----‘हे सुंदरी! तुम कौन हो,
तुम्हारा नाम क्या है और किसकी पुत्री हो? तुम्हें
पहले तो यहाँ नहीं देखा.’तब श्री कृष्ण के प्रेम भरे
प्रश्नों को सुनकर राधारानी ने उत्तर दिया, ‘ मैं
वृषभानु-कीर्ति की पुत्री राधा हूँ, पास के गाँव बरसाने में
रहती हूँ और प्रायः अपनी सखियों के साथ यहाँ आया करती हूँ. मैंने बहुत दिनों से
नंदजी के बेटे के बारे में सुन रक्खा था कि वे बड़े ही नटखट हैं, माखन चुराते हैं तो लगता है वो तुम्हीं हो.’तब श्री
कृष्ण ने हँसते हुये कहा, ‘परंतु मैंने तुम्हारा तो कुछ
सामान चोरी नहीं किया. आओ! हमसे मित्रता कर लो, दोनों
साथ-साथ खेलेंगे.’राधारानी अंतःकरण में श्री कृष्ण की बातों
से मोहित हो रही थीं, उन्होंने श्री कृष्ण से कहा, ‘अब देर हो रही है, हमें घर वापस जाना है. तुम सायं
हमारे यहाँ गाय दुहने आ जाना.’ जब श्री कृष्ण राधा के यहाँ
गाय दुहने गये तो वहाँ एकांत में राधा और कृष्ण ने प्रेमपूर्वक बातें की.
दिन-प्रतिदिन राधा और कृष्ण किसी ना किसी बहाने एक-दूसरे से मिलने लगे. कभी
वृंदावन में तो कभी बरसाने में. दोनों की परस्पर प्रीति देखकर सभी ब्रजवासी बहुत
सुख पाते थे.
जब श्री कृष्ण मुरली बजाते थे , तो राधा मंत्र-मुग्ध सी मुरली की धुन में खो जाती थीं.
कभी-कभी राधा को लगता था कि कान्हा मुझसे ज्यादा बाँसुरी से प्रेम करते हैं. लेकिन
यदि कुछ समय कान्हा बाँसुरी नहीं बजाते थे तो राधा बेचैन हो जाती थीं. सावन के
महीने में ब्रज में जगह-जगह झूले पड़ जाते थे. जहाँ राधा-कृष्ण प्रेम- पूर्वक झूला
झूलते थे. सखियाँ उन्हें झूला झूलाने में आनंद का अनुभव करती थीं. कभी कृष्ण स्वयं
फूल तोड़्कर राधा का फूलों से श्रंगार करते, कभी राधा अन्य
सखियों के साथ मिल कान्हा का सखी रूप में श्रंगार करतीं. एक बार श्री कृष्ण ने शरद
पूर्णिमा की रात को ‘महारास’ का आयोजन
किया और अन्य गोपियों के साथ कृष्ण और राधा ने महारास में आनंद मग्न होकर नृत्य
किया.
एक बार श्री कृष्ण अन्य गोपियों के साथ राधा को
अपने घर ले गये. नंद बाबा और यशोदा राधा से मिलकर बहुत प्रसन्न हुये. विदा करते
समय यशोदा ने राधा को उपहार भी दिये. ऐसे ही एक बार जब श्री कृष्ण राधा के घर गये
तो बृषभानु और कीर्ति ने उनका हार्दिक स्वागत किया और भेंट आदि देकर विदा किया.
वास्तव में राधा और कृष्ण के माता-पिता ही नहीं, वरन सभी ब्रजवासी हृदय से चाहते थे कि कृष्ण और राधा की जोड़ी बहुत ही
मनोरम है. दोनों का विवाह एक-दूसरे से होना ही चाहिये. किंतु विधाता को कुछ और खेल
खेलना था.
एक दिन कंस ने अक्रूर के द्वारा बलराम और श्री
कृष्ण को मथुरा बुलाया. कृष्ण और बलराम का मथुरा जाने का समाचार सुनकर नंद-यशोदा
ही नहीं, सब गोपियाँ व ग्वाले विरह सागर में डूब
गये. गोपियों ने श्री कृष्ण को रोकने के बहुत प्रयत्न किये, लेकिन
श्री कृष्ण कहाँ रूकने वाले थे उन्हें तो आगे अनेक लीलायें करनी थी. तब सब गोपियों
ने मिलकर राधा से कहा, “राधा रानी! तुम यदि श्री कृष्ण को
रोकोगी, तो वो अवश्य रूक जायेंगे. तुम्हारी बात तो नहीं टाल
सकते.” तब राधा ने कहा, “श्री कृष्ण का कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा
है. मैं उनके कर्मक्षेत्र की बाधा नहीं शक्ति हूँ. वो जहाँ भी रहें मुझसे अलग नहीं
हो सकते. मेरे रोम-रोम में श्री कृष्ण बसे हैं, जब भी दर्पण
देखती हूँ तो नयनों में श्री कृष्ण की ही मूरत दिखाई देती है. चाँद की चाँदनी तो
सारी पृथ्वी पर फैलती है, हमारा आँचल जितना बड़ा होता है उतनी
ही हमें मिलती है. इसी तरह श्री कृष्ण का प्रेम फलक बहुत विस्तृत है, हमारे आँचल में जितना आना था आ गया.” इस तरह राधा ने न तो श्री कृष्ण को
गोपियों की तरह रोका, न टोका, बस एक टक
श्री कृष्ण के रथ को जाता हुआ देखती रहीं. तब श्री कृष्ण ने अक्रूर से रथ रोकने के
लिये कहा और राधा से मिलने आये. श्री कृष्ण का मन भी राधा से दूर जाने पर विचलित
हो रहा था. दोनों के गले रूँधे हुये थे. श्री कृष्ण और राधा एक-दूसरे से कुछ भी
नहीं कह पाये बस एक दूसरे को निहारते रहे; फिर जाते समय श्री
कृष्ण ने अपनी मुरली राधा को दे दी. राधा ने मुरली अपने हृदय से लगा ली.
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श्रीकृष्ण और रूक्मिणी जी का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
रूक्मिणी कुण्डिनपुर के
राजा भीष्मक की पुत्री थीं, उनके पाँच भाई थे. एक दिन नारद जी कुण्डिनपुर गये तो
राजा के कहने पर रूक्मिणी का हाथ देखकर कहा कि, “यह कन्या अत्यन्त भाग्यशाली, सर्वगुण सम्पन्न है, इसका विवाह परमब्रह्म
परमेश्वर से होगा”. यह जानकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई. एक बार कुछ याचक
गण कुण्डिनपुर में जाकर श्री कृष्ण चरित्र का गान करने लगे. राजा भीष्मक ने उन्हें
महल में बुला लिया, वहाँ रूक्मिणी ने भी वह सुना, उनके मन में श्री कृष्ण के प्रति
प्रेम उत्पन्न हो गया. इसी प्रकार एक बार नारद जी ने द्वारिका में जाकर श्री कृष्ण
से रूक्मिणी के गुणों का वर्णन किया, तो श्री कृष्ण के मन में भी रूक्मिणी के
प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया. रूक्मिणी तो दिन-रात श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न
रहने लगीं और पार्वती जी का पूजन कर श्री श्याम सुन्दर को पति रूप में प्राप्त
करने का वर माँगने लगीं. रूक्मिणी ने यह प्रण लिया कि मैं मनमोहन के अतिरिक्त किसी
अन्य से विवाह नहीं करूँगी. रूक्मिणी के इस निर्णय से उनके माता-पिता भी सन्तुष्ट
थे.
एक बार राजा भीष्मक ने राज सभा में रूक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण
के साथ होने का प्रस्ताव रखा, किन्तु उनके बड़े पुत्र रूक्माग्रज ने इस पर बड़ा
विरोध प्रकट करते हुये कहा, “उस गँवार
ग्वाले(श्री कृष्ण) की जाति-पाँति का कुछ पता नहीं, अभी कुछ दिनों से बढ़ गये हैं
तो भी उनकी गणना श्रेष्ठ कुल में नहीं होती. राजन् आप रूक्मिणी का विवाह चँदेरी के
राजा शिशुपाल के साथ करिये”. यद्यपि रूक्मेश, आदि अन्य
भाई, सभासद राजा के मत से ही सहमत थे, लेकिन रूक्माग्रज के आगे एक न चली और उसने
ज्योतिषियों से शुभलग्न पूछकर एक ब्राह्मण के हाथ टीका शिशुपाल को भेज दिया.
जब रूक्मिणी को ज्ञात हुआ कि रूक्माग्रज ने राजा का विरोध कर उसकी लगन शिशुपाल के यहाँ भेज दी है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. वह मन में विचार करने लगीं कि मैं तो अन्तःकरण से श्री कृष्ण को अपना पति मान चुकी हुँ अब किसी ओर को अपना पति कैसे मानूँगी. बहुत सोच विचार कर रूक्मिणी ने एक पत्र श्रीकृष्ण ने नाम लिखा, “हे देव! मैं मन, वचन और कर्म से आपको अपना पति मान चुकी हुँ. किसी अन्य के लिये मेरे ह्रदय में स्थान नहीं है. मेरा बड़ा भाई रूक्माग्रज मेरा विवाह शिशुपाल से करवाने जा रहा है, उसका विरोध करने में मेरे पिता व अन्य सभासद असमर्थ हैं. अतः आपसे निवेदन है कि आप विवाह से एक दिन पूर्व आकर मेरी लाज रख लें. जब मैं देवी जी की पूजा करने नगर से बाहर जाऊँगी , तब वहाँ से आप मुझे अपने साथ ले जाइयेगा. आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे. आपके चरणों की दासी- रूक्मिणी” और एक बुद्धिमान ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण के पास द्वारिका भेज दिया.1.
श्री कृष्ण को पत्र देते
हुये ब्राह्मण ने भी श्री कृष्ण से कहा कि “हे दया सिन्धु! कुण्डिनपुर की
राजकुमारी दिन-रात तुम्हारा ध्यान रखती हैं, उसके भाई रूकमाग्रज ने सबका विरोध कर
उसकी सगाई शिशुपाल से कर दी है किन्तु रूक्मिणी मन, वचन, कर्म से आपके साथ ही
विवाह करने का संकल्प कर चुकी हैं. अतः आप शीघ्र से शीघ्र कुण्डिनपुर चलने की कृपा
कीजिये”. श्री कृष्ण ने ध्यान से ब्राह्मण के वचन सुने और रूक्मिणी
द्वारा भेजा पत्र भी पढ़ा. पत्र पढ़कर श्री कृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुये और एकान्त
में ले जाकर ब्राह्मण से कहा कि- “हे ब्राह्मण देवता! जब से नारद जी
से रूक्मिणी के रूप, गुणों को सुना है, तब से मैं भी उससे प्रेम करने लगा हुँ. अभी
आप विश्राम करिये, सुबह हम दोनों कुण्डिनपुर चलेंगे.”
प्रातः काल होने पर श्री
कृष्ण ने दारूक सारथि से रथ मँगवाया और ब्राह्मण के साथ कुण्डिनपुर को चल दिये.
पीछे बलराम जी सेना सहित श्री कृष्ण की सहायता के लिये आ गये. कुण्डिनपुर पहुँच कर
श्री कृष्ण राजा भीष्मक के बाग में ठहर गये. ब्राह्मण के मुख से श्री कृष्ण के आने
का समाचार सुनकर रूक्मिणी अत्यन्त प्रसन्न हुईं. राजा भीष्मक को भी जब श्री कृष्ण
के आने का समाचार मिला तो वह भी अत्यन्त प्रसन्न हुये और अपने चारों छोटे पुत्रों
के साथ रत्नाभूषणादि लेकर श्री कृष्ण से मिलने बाग में पहुँचे. राजा भीष्मक ने मन
का सब हाल श्री कृष्ण से कह दिया कि किस तरह रूक्माग्रज के सामने वह विवश हैं.
शिशुपाल भी बारात लेकर कुण्डिनपुर पहुँच गया, उसको जनवासे में ठहराया गया और राजा
ने उत्तमोत्तम पदार्थों के साथ बारात का स्वागत किया.
रुक्माग्रज को जब श्री कृष्ण और बलराम के आने का समाचार मिला तो वह
अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसे लगा कि पिता ने उन्हें बुलाया है, लेकिन राजा ने मना
कर दिया कि मैंने कृष्ण, बलराम को नहीं बुलाया. तब रूक्माग्रज ने शिशुपाल और
जरासन्ध के पास जाकर कहा कि यहाँ कृष्ण और बलराम भी आये हुये हैं, अतः अपने
सेनापतियों को सावधान कर दो.
विवाह के दिन रूक्मिणी अपनी सखियों के साथ गौरी पूजन के लिये नगर
के बाहर देवी मन्दिर के लिये चलीं. उस समय शिशुपाल ने अपने पचास हजार सैनिक भी
रूक्मिणी की रक्षा के लिये साथ भेज दिये. मन्दिर में पहुँचकर रूक्मिणी ने गौरी का
विधिपूर्वक पूजन किया और प्रार्थना की कि “हे गौरी माता! मैंने बचपन से
ही आपकी सेवा की है. आप मेरे मन की दशा जानती हैं. अतः आप ऐसा वरदान दें कि मुझे
मनवांछित वर प्राप्त हो.” पूजा, अर्चना
कर रूक्मिणी मन में श्याम सुन्दर से मिलने की आशा लिये मन्दिर से निकलीं. तभी
आनंदकंद श्री कृष्ण का रथ वहाँ आ गया. श्याम सुन्दर को देखकर रूक्मिणी व सखियाँ
अत्यन्त प्रसन्न हुईं. श्री कृष्ण ने रथ रूक्मिणी के बिल्कुल समीप ही खड़ा कर
दिया. जैसे ही रूक्मिणी ने लजाते हुये अपना हाथ बढ़ाया वैसे ही श्री कृष्ण ने
रूक्मिणी को अपने बायें हाथ से पकड़कर रथ में बैठा लिया और शंख बजाते हुये आगे बढ़
गये. शिशुपाल के सैनिक उन्हें देखते ही रह गये. श्री कृष्ण अपना रथ तीव्र गति से
द्वारिका की ओर ले जाने लगे. उन्होंने देखा कि रूक्मिणी कुछ घबरायी हुई हैं तब
उन्होंने रूक्मिणी से कहा, “हे रूक्मिणी! तुम चिंता न करो, मैं द्वारिका पहुँचकर तुमसे विधिवत विवाह
करूँगा”. यह कहकर अपने गले की माला रूक्मिणी को पहना दी.
जब रूक्माग्रज और शिशुपाल को ज्ञात हुआ कि श्री कृष्ण रूक्मिणी का हरण करके ले
गये हैं तो वे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ व जरासन्ध, दन्तवक्र, आदि राजा जो शिशुपाल
की बारात में आये हुये थे, श्री कृष्ण से युद्ध करने चल दिये. श्री कृष्ण-बलराम की
सेना व रूक्माग्रज, आदि की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ. श्री कृष्ण रूक्माग्रज
को मारने ही वाले थे कि रूक्मिणी के कहने पर उसे जीवन दान दे दिया. अन्य सेना को
भी तहस-नहस कर श्री कृष्ण और बलराम रूक्मिणी के साथ द्वारिका पहुँचे. वहाँ राजा
उग्रसेन और वसुदेव ने सब परिवार जनों के साथ उनकी अगवानी की और प्रसन्नतापूर्वक
राजमन्दिर में ले गये. वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्ग मुनि को बुलाकर शुभ लग्न
में श्री कृष्ण जी के साथ रूक्मिणी जी का विवाह करा दिया.