जय-विजय की कथा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
एक बार सनत् कुमार बिष्णु भगवान के दर्शन के
लिये बैकुण्ठ लोक को गये, किन्तु वहाँ के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें बच्चे समझकर
अन्दर जाने से रोक दिया. परिणाम स्वरूप सनत् कुमारों ने क्रोधवश जय-विजय को श्राप
दिया कि तुमने हमारा तीन घड़ी समय नष्ट किया है, इसलिये तुम्हें तीन बार मृत्यु
लोक में दैत्य योनि में जन्म लेना होगा. जब स्वयं बिष्णु भगवान बाहर आये तो
उन्होंने सनत् कुमारों को वहाँ क्रोध की अवस्था में जय-विजय को श्राप देते हुये
देखा. तब बिष्णु भगवान ने सनत् कुमारों का अभिवादन किया और कहा कि जय-विजय तो मेरी
ही आज्ञा का पालन कर रहे थे. जय और विजय ने भी सनत् कुमारों के चरण पकड़ कर अनुरोध
किया कि हमसे जो भूल हुई है उसे क्षमा करने की कृपा कीजिए और श्राप से मुक्त कर
दीजिए. तब सनतकुमारों ने कहा कि दिया हुआ श्राप तो वापस नहीं हो सकता किन्तु साथ
ही यह वरदान भी देते हैं कि हर जन्म में तुम्हारी मृत्यु प्रभु के ही हाथों होगी
और तीसरी बार तुम्हें मुक्ति मिलेगी.
जय-विजय ने प्रथम जन्म हिरण्याक्ष और
हिरण्यकश्यप के रूप में लिया. जब हिरण्याक्ष को मारने के लिये प्रभु ने वाराह
अवतार लिया और हिरण्यकश्यप को मारने के लिये नृसिंह अवतार लिया. दूसरे जन्म में
जय-विजय रावण और कुम्भकर्ण बने, तब प्रभु ने राम अवतार लेकर रावण और कुम्भकर्ण को
मारा. तीसरे जन्म में जय-विजय ने शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया, तब
प्रभु ने कृष्ण अवतार लेकर शिशुपाल और दन्तवक्र को मारकर दैत्य योनि से मुक्त कर
बैकुंठ-धाम भेज दिया.
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